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समझा जाता है। माना जाता है कि यथार्थतः दीक्षित एवं अभिषिक्त के अतिरिक्त अन्य किसी के सामने यह शास्त्र प्रकट नहीं करना चाहिए। कुलार्णवतन्त्र में लिखा है कि धन देना, स्त्री देना, अपने प्राण तक देना पर यह गुह्य शास्त्र अन्य किसी अदीक्षित के सामने प्रकट नहीं करना चाहिए।
शैव आगमों के समान वैष्णव आगम भी अनेक हैं, जिनको 'संहिता' भी कहते हैं । इनमें नारदपंचरात्र अधिक प्रसिद्ध है।
आगमप्रकाश -- गुजराती भाषा में विरचित 'आगमप्रकाश' तान्त्रिक ग्रन्थ है । इसमें लिखा है कि हिन्दुओं के राज्य काल में वङ्ग के तान्त्रिकों ने गुजरात के डभोई, पावागढ़, अहमदाबाद, पाटन आदि स्थानों में आकर कालिका मूर्ति की स्थापना की । बहुत से हिन्दू राजाओं ने उनसे दीक्षा ग्रहण की थी, ( आ० प्र० १२ ) । आधुनिक युग में प्रचलित मन्त्रगुरु की प्रथा वास्तव में तान्त्रिकों के प्राधान्य काल से ही आरम्भ हुई ।
आगमप्रामाण्य - श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के यामुनाचार्य द्वारा विरचित यह ग्रन्थ वैष्णव आगम अथवा संहिताओं के अधिकारों पर प्रकाश डालता है। यह ग्रन्थ संस्कृत भाषा में है । इसका रचनाकाल ग्यारहवीं शताब्दी है । आगस्त्य -- ऐतरेय (३.१.१ ) एवं शाङ्खायन आरण्यक (७.२) में उल्लिखित यह एक आचार्य का नाम है। आग्नेयक - शैव-आगमों में एक रौद्रिक आगम है । आग्नेय व्रत -- इस व्रत में केवल एक बार किसी भी नवमी के दिन पुष्पों से भगवती विन्ध्यवासिनी का पूजन (पाँच उपचारों के साथ) होता है । दे० हेमाद्रि, व्रत खण्ड, ९५८-५९ ( भविष्योत्तर पुराण से उद्धृत ) | आङ्गिरस - यह अङ्गिरस्-परिवार की उपाधि है, जिसे बहुत से आचार्यों ने ग्रहण किया था । इस उपाधि के धारण करने वाले कुछ आचार्यों के नाम हैं कृष्ण, आजीगति, च्यवन, अयास्य, सुधन्वा इत्यादि ।
आङ्गिरस कल्पसूत्र - अथर्ववेद का एक वेदांग | इसमें अभिचारकर्मकाल में कर्त्ता और कारयिता सदस्यों की आत्मरक्षा करने की विधि बतायी गयी है। उसके पश्चात् अभिचार
उपयुक्त देशकाल, मंडप रचना, साधक के दीक्षादि धर्म, समिधा और आज्यादि के संरक्षण का निरूपण है । फिर
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आगमप्रकाश आचार
अभिचार-कर्मसमूह तथा प्राकृताभिचार निवारण और अन्यान्य कर्मों का उल्लेख है । आङ्गिरसस्मृति पं० जीवानन्द द्वारा प्रकाशित स्मृतिसंग्रह ( भाग १, पृ० ५५७-५६० ) में ७२ श्लोकों की यह एक संक्षिप्त स्मृति संगृहीत है। इसमें चार वर्णों और चार आश्रमों के कर्त्तव्यों, प्रायश्चित्तविधि आदि का निरूपण है। अन्त्यजों के हाव से भोजन और पेय ग्रहण करने, गौ को मारने और आघात पहुँचाने आदि के विस्तृत प्रायश्चित्तों का विधान और नीलवस्त्र धारण के नियम भी इसमें पाये जाते हैं । स्त्रीधन का अपहरण इसके मत से निषिद्ध है
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याज्ञवल्क्यस्मृति में जिन धर्मशास्त्रकारों के नाम दिये गये हैं, उनमें अङ्गिरा भी हैं। उसके टीकाकार विश्वरूप ने कई स्थलों पर अङ्गिरा का मत उद्धृत किया है । यथा, अङ्गिरा के अनुसार परिषद् के सदस्यों की संख्या १२१ होनी चाहिए ( या० स्मृ० १.९ ) । इसी प्रकार अङ्गिरा के मत में शास्त्र के विरुद्ध 'आत्मतुष्टि' का प्रमाण अमान्य है । ( या० स्मृ० १.५० ) । याज्ञवल्क्यस्मृति के दूसरे टीकाकार अपरार्क ने अङ्गिरा के अनेक वचनों को उद्धृत किया है। मनु के टीकाकार मेधातिथि ने सतीप्रथा पर अङ्गिरा का अवतरण देकर उसका विरोध किया है। (म० स्मृ० ५.१५१ ) । मिताक्षरा आदि अन्य टीकाओं और निबन्ध ग्रन्थों में अङ्गिरा के अवतरण पाये जाते हैं । लगता है कि कभी धर्मशास्त्र का आङ्गिरस सम्प्रदाय बहुप्रचलित था जो धीरे धीरे लुप्त होता गया । आचार-शिष्ट व्यक्तियों द्वारा अनुमोदित एवं बहुमान्य रीति-रिवाजों को 'आचार' कहते हैं । स्मृति या विधि सम्बन्धी संस्कृत ग्रन्थों में आचार का महत्त्व भली भाँति दर्शाया गया है। मनुस्मृति (१.१०९) में कहा गया है कि आचार, आत्म अनुभूतिजन्य एक प्रकार की विधि है एवं द्विजों को इसका पालन अवश्य करना चाहिए। धर्म के स्रोतों में श्रुति और स्मृति के पश्चात् आचार का तीसरा स्थान है । कुछ विद्वान् तो उसको प्रथम स्थान देते हैं; क्योंकि उनके विचार में धर्म आचार से ही उत्पन्न होता है -- 'आचारप्रभवो धर्मः' । इस प्रकार के लोकसंग्राहक धर्म को तीन भागों में बाँटा गया है - 'आचार', 'व्यवहार' और 'प्रायश्चित्त' । (याज्ञवल्क्यस्मृति का प्रकरण - विभाजन
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