________________
शाक्तमत
६२३
वाचम' आदि तथा ज्योतिष्टोम में 'वाग्विसर्जन स्तोम' का उल्लेख है। यजुर्वेद ( अ० २.२ ) में 'सरस्वत्यै स्वाहा' मन्त्र से आहति देने का विधान है । यजुर्वेद ( ५.१६ ) में पृथ्वी और अदिति देवियों का वर्णन है। इसके सत्रहनें अध्याय के ५५७ मन्त्र में पाँच दिशाओं से विघ्न-बाधा निवारण के लिए इन्द्र, वरुण, यम, सोम और ब्रह्मा देवताओं की शक्तियों का आवाहन किया गया है। अथर्नवेद के चतुर्थ काण्ड के ३०० सूक्त में महाशक्ति का निम्नांकित कथन है : ___'मैं सभी रुद्रों और वसुओं के साथ संचरण करती हूँ। इसी प्रकार सभी आदित्यों और सभी देवों के साथ, आदि ।' उपनिषदों में भी शक्ति की कल्पना का विकास दिखाई पड़ता है । केनोपनिषद् में इस बात का वर्णन है कि उमा हैमवती (पार्वती का एक पूर्व नाम ) ने महाशक्ति के रूप में प्रकट होकर ब्रह्म का उपदेश किया । अथर्वशीर्ष, श्रीसूक्त, देवीसूक्त आदि में शक्ति की स्तुतियाँ भरी पड़ी हैं। नैगम ( गैदिक ) शाक्तों के अनुसार प्रमुख दस उपनिषदों में दस महाविद्याओं ( शक्तियों) का ही वर्णन है। पुराणों में मार्कण्डेय पुराण, देवी पुराण, कालिका पुराण, देवी भागवत में शक्ति का विशेष रूप से वर्णन है। रामायण और महाभारत दोनों में देवी की स्तुतियाँ पायी जाती है। अद्भुत रामायण में सीताजी का वर्णन परात्परा शक्ति के रूप में है। नैष्णवग्रन्थ नारदपञ्चरात्र में भी दस महाविद्याओं का विस्तार से वर्णन है । इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि शाक्तमत अत्यन्त प्राचीन है और उसका भा आधार श्रुति-स्मृति है, जिस प्रकार अन्य धार्मिक संप्रदायों का। शैव मत के समान ही शाक्तमत भी निगमानुमोदित है। परन्तु नैदिक कर्मकाण्ड की अपेक्षा शाक्त उपासना श्रेष्ठ मानी जाती है। आगमों के आचार का विकास होने पर शाक्तमत के दो उपसम्प्रदाय हो गये-(१) दक्षिणाचार (नैदिक मार्ग) और (२) वामाचार । दक्षिणाचार को समयाचार भी कहते हैं
और वामाचार को कौलाचार । दक्षिणाचार सदाचारपूर्ण और दार्शनिक दृष्टि से अद्वैतवादी है। इसका अनुयायी अपने को शिव मानकर पञ्चतत्त्वों से शिवा ( शक्ति ) की पूजा करता है। इसमें पञ्च मकारों (मद्यादि) के स्थान पर विजयारस का सेवन होता है। इसके अनुसार शक्ति और शक्तिमान की अभिन्नता की अनुभूति योग के द्वारा
होती है। योग शक्ति-उपासना का प्रधान अङ्ग है। योग के छ: चक्रों में कुण्डलिनी और आज्ञा दो चक्र महाशक्ति के प्रतीक है। आज्ञा चक्र की शक्ति से ही विश्व का विकास होता है।
यौगिक साधनाओं में 'समय' का एक विशेष अर्थ है । हृदयाकाश में चक्रभावना के द्वारा शक्ति के साथ अधिष्ठान, अनुष्ठान, अवस्थान, नाम तथा रूप भेद से पाँच प्रकार का साम्य धारण करनेवाले शिव ही 'समय' कहे जाते हैं । समय वास्तव में शिव और शक्ति का सामरस्य ( मिश्रण ) है । समयाचार की साधना के अन्तर्गत मूलाधार में से सुप्त कुण्डलिनी को जगाकर स्वाधिष्ठान आदि चक्रों से ले जाते हुए सहस्रार चक्र में अधिष्ठित सदाशिव के साथ ऐक्य या तादात्म्य करा देना ही साधक का मुख्य ध्येय होता है। । वामाचार अथवा कौलमत की साधना दक्षिणाचार से भिन्न है किन्तु ध्येय दोनों का एक ही है। 'कौल' उसको कहते हैं जो शिव और शक्ति का तादात्म्य कराने में समर्थ है । 'कुल' शक्ति अथवा कुण्डलिनी है; 'अकुल' शिव है। जो अपनी यौगिक साधना से कुण्डलिनी को जागृत कर सहस्रार चक्र में स्थित शिव से उसका मिलन कराने में सक्षम है वही कौल है। कौल का आचार कौलाचार अथवा वामाचार कहलाता है। इसमें पञ्च मकारों का सेवन होता है। ये पञ्च मकार हैं (१) मद्य (२) मांस (३) मत्स्य (४) मुद्रा और (५) मैथुन । वास्तव में ये नाम प्रतीकात्मक हैं और इनका रहस्य गूढ है। मद्य भौतिक मदिरा नहीं है, ब्रह्मरन्ध्र में स्थित सहस्रदल कमल से स्यूत अमृत ही मधु या मदिरा है । जो साधक ज्ञानरूपी खड्ग से वासनारूपी (पाप-पुण्य) पशुओं को मारता है और अपने मन को शिव में लगाता है वही मांस का सेवन है । मत्स्य शरीर में स्थित इडा तथा पिङ्गला नाड़ियों में प्रवाहित होने वाला श्वास तथा प्रश्वास है । वही साधक मत्स्य का सेवन करता है जो प्राणायाम की प्रक्रिया से श्वास-प्रश्वास को रोककर प्राणवायु को सुषुम्ना नाड़ी के भीतर संचालित करता है। असत् संग का त्याग और सत्संग का सेवन मुद्रा है । सहस्रार चक्र में स्थित शिव और कुण्डलिनी (शक्ति) का मिलन मैथुन (दो का एक होना) है।
ज
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org