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अग्निवेश्यायन-अग्निष्टोम
सर्ग. वंश. मन्वन्तर तथा वंशानुचरित) के अतिरिक्त और (४) होता। उद्गातगण में (१) उद्गाता, (२) इसमें विविध सांस्कृतिक विषयों का भी वर्णन है । अतः प्रस्तोता, (३) प्रतिहर्ता और (४) सुब्रह्मण्य । यह यज्ञ पाँच यह पुराण एक प्रकार का विश्वकोश बन गया है। अन्य दिनों में समाप्त होता था । पुराणों में इसकी श्लोकसंख्या पन्द्रह सहस्र बतायी गयी प्रथम दिन दीक्षा, उसके दीक्षणीय आदि अङ्गों का है और वास्तव में है भी पन्द्रह सहस्र से कुछ अधिक । अनुष्ठान; दूसरे दिन प्रायणीय याग और सोमलता का क्रय इस पुराण का दावा है : 'आग्नेये हि पुराणेऽस्मिन् सर्वा तीसरे एवं चौथे दिनों में प्रातः काल और सायं काल में विद्याः प्रदर्शिताः' अर्थात् इम अग्निपुराण में समस्त प्रवर्थ उपसन्न नामक यज्ञ का अनुष्ठान और चौथे दिन विद्याएँ प्रदर्शित हैं।
में प्रवर्ग्य उद्वासन के अनन्तर अग्निषोमीय पशुयज्ञ का अग्निपुराण का एक दूसरा नाम 'वह्निपुराण' भी है। अनुष्ठान किया जाता था। जिस यजमान के घर में पिता, डॉ० हाजरा को इसकी एक प्रति मिली थी। निबन्ध । पितामह और प्रपितामह से किसी ने वेद का अध्ययन ग्रन्थों में अग्निपुराण के नाम से जो वचन उद्धृत किये नहीं किया अथवा अग्निष्टोम याग भी नहीं किया हो उसे गये हैं वे प्रायः सब इसमें पाये जाते हैं, जबकि 'अग्नि- इस यज्ञ में दुर्ब्राह्मण कहा जाता था। जिस यजमान के पुराण' के नाम से मुद्रित संस्करणों में वे नहीं मिलते। पिता, पितामह अथवा प्रपितामह में से किसी ने सोमपान इसलिए कतिपय विद्वान् 'वह्निपुराण' को ही मूल अग्नि- नहीं किया हो तो इस दोष के परिहारार्थ ऐन्द्राग्न्य पशुयज्ञ पुराण मानते हैं । वह्निपुराण नामक संस्करण में शिव की करना चाहिए । तीनों पशुओं को एक साथ मारने के लिए जितनी महिमा गायी गयी है उतनी अग्निपुराण नामक एक ही स्तम्भ में तीनों को बाँधना चाहिए। संस्करण में नहीं। इस कारण भी वह्निपुराण प्राचीन चौथे दिन अथवा तीसरी रात्रि के भोर में तीसरे पहर माना जाता है।
उठकर प्रयोग का आरम्भ करना चाहिए । वहाँ पर पात्रों अग्निवश्यायन-एक आचार्य, जिनका उल्लेख यजर्वेद की को फैलाना चाहिए। यज्ञ में ग्रहपात्र वितस्तिमात्र उलखल तैत्तिरोय शाखा के तैत्तिरीय प्रातिशाख्य में मिलता है। के आकार का होना चाहिए। ऊर्ध्वपात्र, चमस पात्र अग्निव्रत-इस व्रत में फाल्गुन कृष्ण चतुर्थी को उपवास
परिमित मात्रा में एवं तिरछे आकार के होने चाहिए । ये करना चाहिए । इसमें एक वर्ष तक वासुदेव-पूजा नियमित चार कोणयुक्त एवं पकड़ने के लिए दण्ड युक्त होने चाहिये। रूप से करने का विधान है । दे० विष्णुधर्मोत्तर, जिल्द ३, थाली मिट्टी की बनी हुई होनी चाहिए। आरम्भ में पृ० १४३ ।
सोमलता के डंठलों से रस निकाल कर ग्रह और चमसों अग्निशाला-यज्ञमण्डप का एक भाग, जिसका अर्थ अथर्व- के द्वारा होम करना चाहिए । सूर्योदय के पश्चात् आग्नेय वेद में साधारण गृह का एक भाग, विशेष कर मध्य का पशुयाग करना चाहिए। इस प्रकार सामगान करने के बड़ा कक्ष किया गया है। यहाँ अग्निकुण्ड होता था। अनन्तर प्रातःसवन की समाप्ति होती है। इसके पश्चात् अग्निष्टोम-एक विशिष्ट यज्ञ । स्वर्ग के इच्छुक व्यक्ति को मध्याह्न का सवन होता है, तब दक्षिणा दी जाती है।
अग्निष्टोम यज्ञ करना चाहिए । ज्योतिष्टोम यज्ञ का दक्षिणा में एक सौ बारह गायें होती हैं। फिर तीसरा विस्तार अग्निष्टोम है। इसका समय वसन्त ऋतु है। सवन होता है । इस प्रकार प्रातः सवन, मध्यन्दिन सवन, नित्य अग्निहोत्रकर्ता इस यज्ञ के अधिकारी हैं। इसमें तृतीय (सायं) सवन रूप सवनत्रयात्मक अग्निष्टोम नामक सोम मुख्य द्रव्य और इन्द्र, वायु आदि देवता हैं। १६ प्रधान याग करना चाहिए। ऋत्विजों के चार गण होते हैं-(१) होतगण, (२) अध्वर्यु- दूसरे यज्ञ इसके अङ्ग है। तृतीय सवन की समाप्ति गण, (३) ब्रह्मगण और (४) उद्गातृगण । प्रत्येक गण के पश्चात् अवभृथ नामक याग होता है। जल में वरुण में चार-चार व्यक्ति होते हैं : होतगण में (१) होता, (२) देवता के लिए पुरोडाश का होम किया जाता है। इसके प्रशास्ता, (३) अच्छावाक् (४) ग्रावस्तोता । अध्वर्युगण में पश्चात् अनुबन्ध्य नामक पशुयज्ञ किया जाता है। वहाँ (१) अध्वर्यु, (२) प्रतिप्रस्थाता, (३) नेष्टा, (४) उन्नेता। गाय को ही पशु माना जाता है। किन्तु कलियुग में गोब्रह्मगण में (१) ब्रह्मा, (२) ब्राह्मणाच्छशी, (३) आग्नीध्र बलि का निषेध होने के कारण यज्ञ के नाम से गाय को
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