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________________ ४९८ मरिचसप्तमी-मरुत इनके पदों में इसलाम का प्रभाव भी परिलक्षित है। रुक्माबाई (रुक्मिणी), राधा, सत्यभाभा तथा लक्ष्मी-की गुरुदासपुर जिले (पंजाब ) में घुमन नामक स्थान पर प्रतिमाएँ अलग-अलग मन्दिरों में इनकी बगल में स्थापित नामदेव के नाम पर एक मन्दिर मिर्मित है। हैं (सभी एक साथ एक मन्दिर में नहीं हैं । मराठा भक्ति तीसरे प्रसिद्ध मराठा भक्तगायक त्रिलोचन थे। ये आन्दोलन में राधा का स्थान प्रमुख नहीं है। इन नामदेव के समकालीन थे। इनके बाद मराठा भक्तों में मन्दिरों में महादेव, गणपति तथा सूर्य की स्थापना भी एकनाथ (मृत्यु काल १६०८ ई०) का नाम आता है, जो हुई है। लक्ष्मी को देवी मानते हुए इन पांचों देवों की पैठन में रहते थे । ये जातिवाद के विरोधी थे। इन्होंने पूजा होती है। इन भक्तों ने जातिवाद का समर्थन नहीं भागवत पुराण का मराठी पद्य में अनुवाद किया, जिसे किया, फिर भी महाराष्ट्र के भागवत मन्दिरों में कोई 'एकनाथी भागवत' कहते हैं। इनके २६ अभङ्गों का जातिच्युत प्रवेश नहीं करता रहा है । 'हरिपाठ' नामक संग्रह तथा चतुःश्लोकी भागवत भी मरिचसप्तमी-चैत्र शुक्ल सप्तमी को इस व्रत का अनुष्ठान प्रसिद्ध है। संत तुकाराम ( १६०८-४९ ई०) व्यापारी थे होता है । इसमें सूर्य का पूजन किया जाता है। ब्राह्मणों एवं बिठोवा ( पंढरीनाथ ) के भक्त थे। इनके अभङ्ग को निमन्त्रित करके १०० काली मिर्चे निम्नलिखित बड़े ही भावपूर्ण हैं। मन्त्र 'ओम् खखोल्काय स्वाहा' बोलते हुए उन्हें खाने को महात्मा नारायण (१६०८-८९ ई०), जिनका परवर्ती दी जाती हैं। इससे व्रती को अपने प्रिय व्यक्तियों का नाम समर्थ रामदास हो गया था, कविता के क्षेत्र में साहि विछोह सहन नहीं करना पड़ता। राम तथा सीता एवं त्यिक रूप से उतने प्रसिद्ध न थे, किन्तु व्यक्तिगत रूप से नल तथा दमयन्ती ने भी इस व्रत को किया था। महाराज शिवाजी पर १६५० ई० के पश्चात् इनका बड़ा प्रभाव था। इनका 'दासबोध' ग्रन्थ धार्मिक की अपेक्षा मरुत-ऋग्वेद में मरुतों की स्तुति सम्बन्धी कुल ३३ दार्शनिक अधिक है । इनके नाम पर आज भी एक सम्प्रदाय ऋचाएं (पाँचवें मण्डल में ११+पहले में ११ तथा 'रामदासी' प्रचलित है। इनके अनुयायी साम्प्रदायिक शेष संहिता में ११ = ३३) हैं। इसके अतिरिक्त अन्य चिह्न धारण करते हैं तथा अपना एक रहस्यमय मन्त्र ऋचाओं में उनका उल्लेख अन्य देवों के साथ हुआ है, विशेषकर इन्द्र के साथ । इनका इन्द्र के साथ सामीप्य रखते हैं । सतारा के समीप सज्जनगढ़ इनका मुख्य केन्द्र है । यहाँ रामदासजी की समाधि, रामचन्द्रजी का मन्दिर वृत्रयुद्ध के समय सहायक के रूप में हुआ है। ऋग्वेदीय तथा रामदासीजी का मन्दिर तथा रामदासी सम्प्रदाय का सामग्री के अनुसार मरुतों का निम्नलिखित वर्णन प्रस्तुत मठ है। किया जा सकता है : अठारहवीं शताब्दी के आरम्भ में श्रीधर नामक एक वे विद्युत् के अट्टहास से उत्पन्न होते हैं, आकाश के पंडित कवि बड़े ही प्रसिद्ध हुए, जिन्होंने मराठी में रामा- पुत्र है, नायक हैं, पुरुष हैं, भाई हैं, साथ-साथ पढे हैं. यण एवं महाभारत की कथाएँ पद्यबद्ध की। इनका सभी एक अवस्था व मन के हैं, रोदसी से घनिष्ठ रूप से प्रभाव सीधे धार्मिक नहीं है, किन्तु इनके कथानकों का सम्बन्धित है, अग्नि की जिह्वा सदश चमकते हैं तथा सर्प स्वरूप धार्मिक है। इसी शताब्दी में पीछे महीपति हुए। की चमक रखते हैं, विद्य त् को अपने मुट्ठी में रखते हैं इनके द्वारा भक्तों तथा साधुओं की जीवनियाँ लिखी गईं। और विद्य त की माला धारण करते हैं, सुनहरे इनके ग्रन्थ हैं सन्त लीलामृत, भक्तविजय एवं कथासारा- आभूषण भुजाओं तथा घुट्टियों पर धारण करते हैं, जिनके मृत । मराठी भाषाभाषी भागवतों द्वारा इस प्रकार सर्व- द्वारा वे तारों भरे आकाश सदृश द्युतिमान होते हैं, चितविदित भक्ति आन्दोलन का गठन हुआ। भागवतपुराण कबरे घोड़ों द्वारा खींचे जाने वाले विद्य त् के रथ पर के सिवा इनका सारा साहित्य मराठी में है। इनके देवता सवारी करते हैं तथा वायु को अपने ध्रुव गन्तव्य के लिए विट्ठलनाथ या बिठोवा हैं। बिठोवा विष्णु का मराठी जोतते हैं, बछड़ों की भांति क्रीड़ारत हैं, वन्य पशुओं जैसे नाम है । इसके केन्द्र है पण्ढरपुर, आलन्दि, एवं देहु ।। भयावह है, बिजली, आँधी तथा तूफान से पहाड़ों को भी किन्तु सारे महाराष्ट्र देश में इनके छोटे-मोटे मन्दिर हिला देते है, कुहासा बोते हैं, आकाश का धन दुहते हैं, बिखरे हुए हैं। बिट्ठल की अनेक पत्नियों ( शक्तियों)- सूर्य की आँखों को अपनी बूदों की झड़ी से ढक देते हैं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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