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________________ २१२ कौलाचार-कौशिक कौलाचार-तान्त्रिक गण सात प्रकार के आचारों में विभक्त है। पृथ्वी में यह एक मात्र मुक्तिदायिनी समझी जाती है । कुलार्णवतन्त्र के अनुसार वेद, वैष्णव, शैव, दक्षिण, है । इसका नाम ही तीर्थ है। वाम, सिद्धान्त एवं कौल ये सात आचार हैं। कौलाचार कौलोपनिषद्-कौलमार्ग (शाक्तों की एक शाखा) का यह सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। किन्तु प्रथम तीन अन्तिम चार आधारग्रन्थ है। यह संक्षिप्त ग्रन्थ है और सरल गद्य में की निन्दा भी करते हैं। प्रत्येक आचार के अनेक तन्त्र संकेतों के साथ लिखा गया है। अतः पहेली के समान हैं । तन्त्रों में कौलाचार का वर्णन इस प्रकार है : सरलता से समझ में न आने वाला है तथा इसका निर्देश दिक्कालनियमो नास्ति तिथ्यादिनियमो न च । अस्पष्ट है। इसका कथन है कि पूजा-पाठ एवं यज्ञादि से नियमो नास्ति देवेशि महामन्त्रस्य साधने ।। मुक्ति नहीं मिलती। इसे प्राप्त करने के लिए सामाजिक क्वचित शिष्टः क्वचिद् भ्रष्टः क्वचिद् भूतपिशाचकः । परम्परा से चले आ रहे अन्धविश्वासी बन्धनों से मुक्ति नानावेशधराः कौला विचरन्ति महीतले ।। पानी चाहिए। कौल धर्म वीरों का मार्ग है, कायरों का कर्दमे चन्दनेऽभिन्न मित्रे शत्रौ तथा प्रिये । नहीं। श्मशाने भवने देवि तथैव काञ्चने तणे ।। कौशाम्बी-प्राचीन प्रसिद्ध वत्स जनपद की राजधानी, जो न भेदो यस्य देवेशि स कौलः परिकीर्तितः ।। प्रयाग से दक्षिण है। इसका गौतम बुद्ध के जीवन तथा बौद्ध धर्म से घनिष्ठ सम्बन्ध था। यह इतिहासप्रसिद्ध (नित्यातन्त्र) राजा उदयन की राजधानी थी। इस स्थान का नाम अब [ देश एवं काल का नियम नहीं है, तिथि आदि का भी कोसम है । यहाँ भूखनन से बहुत-सी मूर्तियाँ, स्थापत्य के नियम नहीं है । हे देवेशि ! महामन्त्र-साधन का भी नियम भग्न खण्ड और अन्य वस्तुएँ निकली हैं। यह जैनों का नहीं है । कभी शिष्ट, कभी भ्रष्ट और कभी भूत-पिशाच भी तीर्थस्थल है। के समान, इस तरह नाना वेषधारी कौल महीतल पर वाल्मीकिरामायण (१.३२.५) के अनुसार कुशाम्ब विचरण करते हैं । कर्दम और चन्दन में, मित्र और शत्रु नामक एक पौरव राजा ने इसकी स्थापना की थी : में, श्मशान और गृह में, स्वर्ण और तृण में जिनका भेदज्ञान _ 'कुशाम्बस्तु महातेजा कौशाम्बीमकरोत् पुरीम् ।। नहीं, उन्हें ही 'कौल' कहा जा सकता है। गंगा की बाढ़ से जब हस्तिनापुर नष्ट हो गया तो कौलों के विषय में और भी कथन है : वहाँ से हटकर पौरव राज वत्स जनपद में आ गया था। अन्तः शाक्ता बहिः शैवाः सभामध्ये तु वैष्णवाः । कौशिक-इन्द्र का एक नाम, जिसे कुशिकों से सम्बन्धित नाना रूपधराः कौला विचरन्ति महीतले ।। कहा गया है। विश्वामित्र को भी कौशिक (कुशिक के पुत्र) [ भीतर से शाक्त, बाहर से शैव, सभा में वैष्णव; नाना । कहते हैं। बृहदारण्यक उनिषद् के प्रारम्भिक दो वंशों में रूप धारण करके कौल लोग पृथ्वी पर विचरण करते हैं । ] कौशिक नामक आचार्य का नाम कौण्डिन्य के शिष्य के कौलाचार में जो वस्तुएँ मूल में रूपकात्मक थीं वे रूप में आया है। पुराणों में बतलाया गया है कि किस आगे चलकर व्यवहार में अपने भौतिक रूप में प्रयुक्त होने प्रकार इन्द्र ने राजा कुशिक की तपस्या से भयभीत होकर लगीं। कौलों की साधना में पञ्च मकार (मद्य, मांस, उसका पुत्रत्व स्वीकार किया। हरिवंश (२७.१३-१६) में मत्स्य, मुद्रा और मैथुन) का उन्मुक्त प्रयोग होता है। इन यह कथा इस प्रकार है : पञ्च मकारों से जगदम्बिका का पूजन होता है। काली अथवा कुशिकस्तु तपस्तेपे पुत्रमिन्द्रसमं विभुः । तारा का मन्त्र ग्रहण करके जो पञ्च मकार का सेवन नहीं लभेयमिति तं शस्त्रासादभ्येत्य जज्ञिवान् ।। करता वह कलियुग में पतित है; वह जप, होम आदि पूणे वर्षसहस्र वं तन्तु शक्रो ह्यपश्यत । कार्यों में अनधिकारी होता है तथा मूर्ख कहलाता है । अत्युग्रतपसं दृष्ट्वा सहस्राक्षः पुरन्दरः ।। उसका पितृतर्पण श्वानमूत्र के समान है । काली और तारा समर्थं पुत्रजनने स्वमेवांशमवासयत् । का मन्त्र पाकर जो वीराचार नहीं करता वह शूद्रत्व को पुत्रत्वे कल्पयामास स देवेन्द्रः सुरोत्तमः ।। प्राप्त होता है। सुरा सभी कायों में प्रशस्त मानी जाती स गाधिरभवद्राजा मघवान् कौशिकः स्वयम् ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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