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नरमेध-नरसिंहपुराण
होती है। पुराणों एवं तन्त्रों में, जो मध्यकाल के प्रार- नरसिंह आगम-रौद्रिक (शैव ) आगमों में से एक 'नरम्भिक चरण में रचे गये, अनेक स्थानों पर नरबलि की सिंह आगम' भी है। इसका दूसरा नाम 'शर्वोक्त' या चर्चा है। यह बलि देवी चण्डिका के लिए दी जाती 'सवेत्तिर' भी है। थी । कालिकापुराण में कहा गया है कि एक बार नर- नरसिंहचतुर्दशी-वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को नरसिंहचतुर्दशी बलि देने से देवी चण्डिका एक हजार वर्ष तक प्रसन्न कहते हैं । यह तिथिव्रत है। यदि उस दिन स्वाती नक्षत्र, रहती हैं तथा तीन नरबलियों से एक लाख वर्ष तक । शनिवार, सिद्धि योग तथा वणिज करण हो, तो उसका मालतीमाधव नाटक के पाँचवें अंक में भवभूति ने इस फल करोडगुना हो जाता है। भगवान् नरसिंह इसके पूजा का वर्णन बड़े रोचक ढंग से उपस्थित किया है, देवता हैं । हेमाद्रि, २.४१-४९ ( नरसिंहपुराण से ) तथा जबकि अघोरी (अघोरघण्ट) द्वारा देवी चण्डिका के कई अन्य ग्रन्थों में इसे नरसिंहजयन्ती कहा गया है, लिए नायिका की बलि देने की चेष्टा की गयी थी। क्योंकि इसी दिन भगवान नरसिंह का अवतार हुआ था ।
यह प्रथा क्रमशः निषिद्ध हो गयी । नरबलि मृत्युदण्ड उस दिन स्वाती नक्षत्र तथा सन्ध्या काल था। यदि यह का अपराध है । फिर भी दो चार वर्षों में कहीं न कहीं त्रयोदशी अथवा पूर्णिमा से विद्ध हो तो जिस दिन सूर्यास्त से इसका समाचार सुनाई पड़ जाता है।
को चतुर्दशी हो वह दिन ग्राह्य है। वर्षकृत्यदीपिका संसार के कई अन्य देशों में नरबलि और नरभक्षण की (पृ० १४५-१५३ ) में पूजा का एक लम्बा विधान दिया प्रथाएँ अब तक पायी जाती रही है।
हुआ है। नरमेध-इसका शाब्दिक अर्थ है वह मेध ( यज्ञ ) जिसमें नरसिंहत्रयोदशी-त्रयोदशी को पड़नेवाले गुरुवार के दिन नर ( मनुष्य ) की बलि दी जाती है। ब्राह्मण ग्रन्थों मे इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इस दिन मध्याह्नोत्तर इस यज्ञ का वर्णन मिलता है। यह एक रूपकात्मक काल में भगवान नरसिंह की प्रतिमा को स्नान कराकर प्रक्रिया थी । धर्म के विकृत होने पर यह कभी कभी उनकी पूजा करनी चाहिए। इसमें उपवास रखना यथार्थवादी रूप भी धारण कर लेती थी। कलि में कलिवर्य अनिवार्य है। के अन्तर्गत गोमेध, नरमेध आदि सभी अवांछनीय क्रियाएँ नरसिंहद्वादशी-यह व्रत फाल्गुन कृष्ण द्वादशी के दिन वजित हैं । दे० 'नरबलि' ।।
मनाया जाता है । इस दिन उपवास करते हुए नृसिंह भगनरवैबोध-गुरु गोरखनाथ के रचे ग्रन्थों में से 'नरवबोध' वान की प्रतिमा का पूजन करना चाहिए। श्वेत वस्त्र से
भी एक है। नागरी प्रचारिणी सभा, काशी के खोज आवृत एक जलपूर्ण कलश स्थापित करना चाहिए । इस विवरणों में इसका उल्लेख पाया जाता है । इसमें आध्या- पर भगवान् नृसिंह को स्वर्ण, काष्ठ अथवा बाँस की त्मिक बोध का विवेचन है।
प्रतिमा पधरानी चाहिए। इसी दिन पूजनोपरान्त उस नरसाकेत-महात्मा चरणदास द्वारा रचे गये ग्रन्थों में प्रतिमा को किसी ब्राह्मण को दान में देना चाहिए। दे० से एक 'नर साकेत' भी है।
हेमाद्रि, १.१०२९-३०, वाराहपुराण, ४१.१-७ तथा १४नरसिंह ( नृसिंह)-विष्णु के अवतारों में से नरसिंह अथवा
१६ से उद्धृत । वाराहपुराण में कहा गया है कि यह व्रत नृसिंह चौथा अवतार है। यह मानव और सिंह का संयुक्त
शुक्ल पक्ष में किया जाय; जबकि हेमाद्रि, १.१०२९ में विग्रह है । यह हिंसक मानव का प्रतीक है । दुष्टदलन में
कृष्ण पक्ष में ही व्रत का विधान है। यह भेद क्षेत्रीय जान .हिंसा का व्यवहार ईश्वरीय विधान में ही है अतः भगवान् पड़ता है। विष्णु ने भी यह अवतार धारण किया। इस अवतार की नरसिंहपुराण--उन्तीस उपपुराणों में यह भी एक है। कथा बहुत प्रचलित है। विष्णु ने दैत्य हिरण्यकशिपु का नरसिंह मेहता (नरसी)-गुजरात के एक सन्त-कवि। सारे वध करने तथा भक्त प्रह्लाद के रक्षार्थ यह रूप धारण भारत में धार्मिक भावों को व्यक्त करने की आवश्यकता ने किया था। यह कथा वैदिक साहित्य तथा तैत्तिरीय सुबोध, सुललित और मनोहर वाङ्मय को जन्म दिया । आरण्यक ( १०.१.६ ) में भी उद्धृत है। पुराणों में हृदय के ऊँचे-ऊँचे और सूक्ष्म से सूक्ष्म भाव और बुद्धि के तो यह विस्तार से कही गयी है । दे० 'अवतार' ।
सूक्ष्म से सूक्ष्म विचार व्यक्त करने के लिए लोकभाषाओं
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