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अच्युतावास-अजपा
अभ्युतावास 'अच्युत (विष्णु) का आवास (स्थान), ' अश्वत्थ (पीपल) वृक्ष |
अज - (१) ईश्वर का एक विशेषण इसका अर्थ है अजन्मा । नहि जातो न जायेऽहं न जनिष्ये कदाचन ।
क्षेत्रज्ञः सर्वभूतानां तस्मादहमजः स्मृतः । महाभारत
[ मैं न उत्पन्न हुआ, न होता हूँ और न होऊँगा । सर्व प्राणियों का क्षेत्रज्ञ हूँ । इसीलिए मुझे लोग अज कहते हैं ।] ब्रह्मा, विष्णु, शिव और कामदेव को भी अज कहते हैं । अज - (२) ऋग्वेद एवं परवर्ती साहित्य में यह साधारणतः बकरे का पर्याय है। इसके दूसरे नाम हैं-बस्त, छाग, छगल आदि । बकरे एवं भेड़ ( अजावयः ) का वर्णन प्रायः साथ- साथ हुआ है। शव क्रिया में अज का महत्त्वपूर्ण स्थान था, क्योंकि वह पूषा का प्रतिनिधि और प्रेत का मार्गदर्शक माना जाता था । दे० अथर्ववेद का अन्त्येष्टि सूक्त ।
अजगर - यह नाम अथर्ववेद में उद्धृत अश्वमेध यज्ञ के पशुओं को तालिका में आता है। पञ्चविंश ब्राह्मण में वर्णित सर्पयज्ञ में इससे एक व्यक्ति का बोध होता है । अजपा- जिसका उच्चारण नहीं किया जाता अपितु जो श्वास-प्रश्वास के गमन और आगमन से सम्पादित किया (हंसः) जाता है, वह जप 'अजपा' कहलाता है। इसके देवता अर्धनारीश्वर है
उद्यद्भानुस्फुरिततडिदाकारमर्द्धाम्बिकेशम्
पाशाभीति
त्रिनेत्रम् |
वरदपरणं संदधानं कराः । दिव्याकल्पैर्नव मणिमयैः शोभितं विश्वमूलम् सौम्याग्नेयं वपुरवतु नश्चन्द्रचूडं [ उदित होते हुए सूर्य के समान तथा चमकती हुई बिजली के तुल्य जिनकी अंगशोभा है, जो चार भुजाओं में अभय मुद्रा, पाश, वरदान मुद्रा तथा परशु को धारण किये हुए हैं, जो नूतन मणिमय दिव्य वस्तुओं से सुशोभित और विश्व के मूल कारण हैं, ऐसे अम्बिका के अर्ध भाग से संयुक्त चन्द्रचूड़, त्रिनेत्र शंकरजी का सौभ्य और आग्नेय शरीर हमारी रक्षा करे। ]
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स्वाभाविक निःश्वासप्रश्वास रूप से जीव के जपने के लिए हंस-मन्त्र निम्नांकित है :
अथ वक्ष्ये महेशानि प्रत्यहं प्रजपेन्नरः । मोहवन्यं न जानाति मोक्षस्तस्य न विद्यते ॥ श्रीगुरोः कृपया देवि ज्ञायते जप्यते यदा । उच्छ्वासनिःश्वासतया तदा बन्धक्षयो भवेत् ॥
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उच्छ्वासरेव निःश्वासैर्हस इत्यक्षरद्वयम् । तस्मात् प्राणश्च हंसारूप आत्माकारेण संस्थितः ॥ नाभेरुच्छ्वासनिःश्वासाद् हृदया व्यवस्थितः । षष्टिश्वासैर्भवेत् प्राणः षट् प्राणा नाडिका मता ॥ पष्टिनाया अहोरात्र जपसंख्याक्रमो मतः । एकविंशति साहस्रं षट्शताधिकमीश्वरि ॥ जपते प्रत्यहं प्राणी सान्द्रानन्दमयीं पराम् । उत्पत्तिर्जपमारम्भो मृत्युस्तत्र निवेदनम् ॥ विना जपेन देवेशि जपो भवति मन्त्रिणः । अजपेयं ततः प्रोक्ता भवपाशनिकृन्तनी ॥
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(दक्षिणामूर्तिसंहिता) मन्त्र कहता हूँ,
[ हे पार्वती ! अब एक उत्तम जिसका मनुष्य नित्य जप करे इसका जप करने से मोह । का बन्धन नहीं लगता और मोक्ष की आवश्यकता नहीं पड़ती है । हे देवी, श्री गुरु की कृपा से जब ज्ञान हो जाता है तथा जब श्वास-प्रश्वास से मनुष्य जप करता है। उस समय बन्धन का नाश हो जाता है। श्वास लेने और छोड़ने में ही "हं स:" इन दो अक्षरों का उच्चारण होता है । इसीलिए प्राण को हंस कहते हैं और वह आत्मा के रूप में नाभि स्थान से उच्छ्वास निश्वास के रूप मे उठता हुआ हृदय के अग्रभाग में स्थित रहता है। साठ श्वासों का एक प्राण होता है, छः प्राणों की एक नाड़ी होती है, साठ नाड़ियों का एक अहोरात्र होता है। यह जपसंख्या का क्रम है । हे ईश्वरी, इस प्रकार इक्कीस हजार छः सौ श्वासों के रूप में आनन्द देने वाली पराशक्ति का प्राणी प्रतिदिन जप करता है। जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त यह जप माना जाता है । हे देवी, मन्त्रज्ञ के बिना जप करने से भी श्वास के द्वारा जप हो जाता है । इसीलिए इसे अजपा कहते हैं और यह भव (संसार) के पास को दूर करने वाला है । ] और भी कहा है :
षट्शतानि दिवा रात्रौ सहसाप्येकविंशतिः । एतत्संख्यान्वितं मन्त्र जीवो जपति सर्वदा || (महाभारत) [ रात-दिन इक्कीस हजार छः सौ संख्या तक मन्त्र को प्राणी सदा जप करता है । ]
सिद्ध साहित्य में 'अजपा' को पर्याप्त चर्चा है। गोरसपंथ में भी एक दिन-रात में आने-जाने वाले २१६०० श्वास-प्रश्वासों को 'अजपा जप' कहा गया है :
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