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आसन-आसुर
एकादशी तथा द्वादशी के दिन भी उपवास, पूजन आदि का विधान है। आषाढी पूर्णिमा का चन्द्रमा बड़ा पवित्र है । अतएव उस दिन दानपुण्य अवश्य होना चाहिए। यदि संयोग से पूर्णिमा के दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्र हो तो दस विश्वेदेवों का पूजन किया जाना चाहिए । पूर्णिमा के दिन खाद्य का दान करने से कभी न भ्रान्त होने वाला विवेक तथा बुद्धि प्राप्त होती है । दे० विष्णुधर्मोत्तर पुराण । आसन-(१) आसन शब्द का अर्थ है बैठना अथवा शरीर की एक विशेष प्रकार की स्थिति । हस्त-चरण आदि के विशेष संस्थान से इसका रूप बनता है । 'अष्टाङ्गयोग' का यह तीसरा अङ्ग है । पतञ्जलि के अनुसार आसन की परिभाषा है 'स्थिरसुखमासनम्' अर्थात् जिस शारीरिक स्थिति से स्थिर सुख मिले। परन्तु आगे चलकर आसनों का बड़ा विकास हुआ और इनकी संख्या ८४ तक पहुँच गयी। इनमें दो अधिक प्रयुक्त हैं: 'एक सिद्धासनं नाम द्वितीयं कमलासनम्' । ध्यान को एकग्रता के लिए आसन तथा प्राणायाम साधन मात्र हैं, किन्तु क्रमशः इनका महत्व बढ़ता गया और ये प्रदर्शन के उपकरण बन गये। तन्त्रसार में निम्नांकित पाँच आसन प्रसिद्ध हैं: पद्मासनं स्वस्तिकाख्यं भद्र वज्रासनं तथा । वीरासनमिति प्रोक्तं क्रमादासनपञ्चकम् ।। [ पद्मासन, स्वस्तिकासन, भद्रासन वज्रासन तथा वीरासन ये क्रमशः पाँच आसन कहे जाते हैं ।] इनकी विधि इस प्रकार है : ऊर्वोरुपरि विन्यस्य सम्यक् पादतले उभे । अङ्गष्ठौ च निबध्नीयाद् हस्ताभ्यां व्युत्क्रमात्तथा ॥ पद्मासनमिति प्रोक्तं योगिनां हृदयङ्गमम् ।।१।। जानोरन्तरे सम्यक् कृत्वा पादतले उभे । ऋजुकायो विशेन्मन्त्री स्वस्तिकं तत्प्रचक्षते ॥२॥ सीमन्याः पार्श्वयोन्य॑स्य गुल्फयुग्मं सुनिश्चलम् । वृषणाधः पादपाष्णि पाणिभ्यां परिबन्धयेत् । भद्रासनं समुद्दिष्टं योगिभिः सारकल्पितम् ।।३।। ऊर्वोः पादौ क्रमान्न्यस्येत् कृत्वा प्रत्यङ्मुखाङ्गली। करौ निदध्यादाख्यातं वज्रासनमनुत्तमम् ॥४॥ एकपादमधः कृत्वा विन्यस्योरौ तथेतरम् । ऋजुकायो विशेन्मन्त्री वीरासनमितीरितम् ॥५॥
(२) गोरखनाथी सम्प्रदाय, जो एक नयी प्रणाली के योग का उत्थान था, भारत के कुछ भागों में प्रचलित
हुआ। किन्तु यह प्राचीन योगप्रणाली से मिल नहीं सका। इसे हठयोग कहते हैं तथा इसका सबसे महत्वपूर्ण अङ्ग है-शरीर की कुछ क्रियाओं द्वारा शुद्धि, कुछ शारीरिक व्यायाम तथा मस्तिष्क का महत् केन्द्रीकरण (समाधि)। इनमें बहसंख्यक शारीरिक आसनों का प्रयोग कराया जाता है।
(३) उपवेशन के आधार पीठादि को भी आसन कहा जाता है । यह सोलह प्रकार के पूजा-उपचारों में से है । कालिकापुराण (अ०६७) में इन आसनों का विधान और विस्तृत वर्णन पाया जाता है :
उपचारान् प्रवक्ष्यामि शृणु षोडश भैरव । यः सम्यक् तुष्यते देवी देवोऽप्यन्यो हि भक्तितः ।। आसनं प्रथमं दद्यात् पौष्पं दारुजमेव वा । वास्त्रं वा चार्मणं कोशं मण्डलस्योत्तरे सृजेत् ।। [हे भैरव, सुनो। मैं सोलह उपचारों का वर्णन कर रहा हूँ जिनसे देवी तथा अन्य देव प्रसन्न होते हैं। इनमें आसन प्रथम है जिसका अर्पण करना चाहिए । आसन कई प्रकार के होते है, जैसे पौष्प ( पुष्प का बना हुआ), दारुज ( काष्ठ का बना हुआ ), वास्त्र ( वस्त्र का बना हुआ), चार्मण (चमड़े, यथा अजिन आदि का बना हुआ), कौश (कुशनिर्मित) । इन आसनों को मण्डल के उत्तर में बनाना (रखना) चाहिए।] आसुर-(१) असुरभाव संयुक्त अथवा असुर से सम्बन्ध रखनेवाला । ब्राह्म आदि आठ प्रकार के विवाहों में से भी एक का नाम आसुर है। मनुस्मृति (३.३१) में इसकी परिभाषा इस प्रकार की गयी है :
ज्ञातिभ्यो द्रविणं दत्त्वा कन्याय चैव शक्तितः । कन्याप्र दानं स्वाच्छन्द्यादासुरो धर्म उच्यते ॥ [ कन्या की जातिवालों (माता, पिता, भाई, बन्धु आदि) को अथवा स्वयं कन्या को ही धन देकर स्वच्छन्दतापूर्वक कन्याप्रदान (विवाह) करना आसुर (धर्म) कहलाता है।] ___ इस प्रकार के विवाह को भी धर्मसंमत कहा गया है, क्योंकि यह पैशाच विवाह की पाशविकता, राक्षस विवाह की हिंसा और गान्धर्व विवाह की कामुकता से मुक्त है। परन्तु फिर भी यह अप्रशस्त कहा गया है । कन्यादान एक प्रकार का यज्ञ माना गया है, जिसमें कन्या का पिता अथवा उसका अभिभावक ही यजमान है। उसके द्वारा
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