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आपस्तम्बयजुः संहिता-आबू (अर्बुद)
राजर्षि वृत्तान्त कीर्तन । कायव्य-दस्यु संवाद । नकुलो- आपस्तम्बीय मण्डनकारिका - मीमांसा शास्त्र का एक प्रसिद्ध पाख्यान । मार्जार मूषिक संवाद । ब्रह्मदत्त-पूजनोसंवाद । कणिक उपदेश । विश्वामित्र निषादसंवाद। कपोतलुब्धकसंवाद भार्याप्रशंसा कीर्तन इन्द्रोत-परीक्षित्संवाद - गोमायुसंवाद पवन शाल्मलिसंवाद आत्मज्ञान कीर्तन | दम गुणवर्णन तपः कीर्तन सत्य कथन । लोभोपाख्यान। नृशंसप्रायवित्तकथन लगोत्पत्ति कीर्तन । षड्जगीता | कृतनोपाख्यान । आपस्तम्ब यजुः संहिता कृष्ण यजुर्वेद के एक सम्प्रदाय ग्रन्थ का नाम 'आपस्तम्ब यजुसंहिता' है। इसमें सात अष्टक हैं । इन अष्टकों में ४४ प्रश्न हैं । इन ४४ प्रश्नों में ६५१ अनुवाक हैं। प्रत्येक अनुवाक् में दो सहस्र एक सौ अड्डानवे कण्डिकाएँ हैं । साधारणतः एक कण्डिका में ५०-५० शब्द हैं । आपस्तम्ब शुल्वसूत्र - कल्पसूत्रों की परम्परा में शुल्वसूत्र भी आते हैं। शुल्बसूत्रों की भूमिका १८७५ ई० में विबो द्वारा लिखी गयी थी (जर्नल ऑफ एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ बेंगाल) । शुल्वसूत्र दो हैं : पहला बौधायन एवं दूसरा आपस्तम्ब । जर्मन में इसका अनुवाद श्री बर्क ने प्रस्तुत किया था शुल्बसूत्रों का सम्बन्ध श्रीत यज्ञों से है। शुल् का अर्थ है मापने का तागा या डोरा । यज्ञवेदिकाओं के निर्माण में इसका काम पड़ता था । यज्ञस्थल, उसके विस्तार, आकार आदि का निर्धारण शुल्बसूत्रों के अनुसार होता था । भारतीय ज्यामिति के प्राचीन आदिम ग्रन्थ माने जाते हैं । आपस्तम्ब श्रौतसूत्र - श्रीतसूत्र अनेक आचार्य ने प्रस्तुत किये हैं। इनकी संख्या १३ है कृष्ण यजुर्वेद के छः श्रीत सूत्र हैं, जिनमें से 'आपस्तम्ब श्रौतसूत्र' भी एक है । इस का जर्मन अनुवाद गार्वे द्वारा १८७८ में और कैलेंड द्वारा १९१० ई० में हुआ। श्रौतसूत्रों की याज्ञिक क्रियाओं पर हिल्लेण्ट ने विस्तृत ग्रन्थ लिखा है।
वैदिक संहिताओं और ब्राह्मण ग्रन्थों में जिन यज्ञों का वर्णन है उनको श्रौतसूत्रों में पद्धतिबद्ध किया गया है । वैदिक हवि तथा सोम यज्ञ सम्बन्धी धार्मिक अनुष्ठानों का इसमें प्रतिपादन है। श्रुतिप्रतिपादित चौदह यज्ञों का इसमें विधान है । दे० 'श्रौतसूत्र' । आपस्तम्ब स्मृति अवश्य ही यह परवर्ती स्मृतियों में से है। आपस्तम्बधर्मसूत्र से इसकी विषयसूची बहुत भिन्न है।
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ग्रन्थ । सुरेश्वराचार्य अथवा मण्डन मिश्र ने, जो पाण्डित्य के अगाध सागर थे और जिन्हें शाङ्करमत के आचार्यों में सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्राप्त है, अपने संन्यास ग्रहण करने के पूर्व ' आपस्तम्बीय मण्डनकारिका' की रचना की थी । आपिशलि - एक प्रसिद्ध प्राचीन व्याकरणाचार्य । इनका नाम पाणिनीय अष्टाध्यायी के सूत्रों में (वा सुप्यापिशले । ६. १. ९२ ) आया है। आप्तोपदेश–न्यायदर्शन में वर्णित चौथा प्रमाण । न्यायसूत्र में लिखा है कि आसोपदेश अर्थात् 'आप्त पुरुष का वाक्य' शब्द प्रमाण माना जाता है। भाष्यकार ने आप्त पुरुष का लक्षण बतलाया है कि जो 'साक्षात्कृतधर्मा' हो अर्थात् जैसा देखा, सुना, अनुभव किया हो ठीक-ठीक वैसा ही कहने वाला हो, वही आप्त है, चाहे वह आर्य हो या म्लेच्छ । गौतम ने आप्तोपदेश के दो भेद किये हैं- 'दृष्टार्थ' एवं 'अदृष्टार्थ' । प्रत्यक्ष जानी हुई बातों को बताने वाला 'दृष्टार्थ' एवं केवल अनुमान से जानने योग्य बातों को (जैसे स्वर्ग, अपवर्ग, पुनर्जन्म इत्यादि को बताने वाला 'अदृष्टार्थ' कहलाता है । इस पर वात्स्यायन ने कहा है कि इस प्रकार लौकिक वचन और ऋषि वचन या वेदवाक्य का विभाग हो जाता है । अदृष्टार्थ में केवल वेदवाक्य ही प्रमाण माना जा सकता है। नैयायिकों के मत से वेद ईश्वरकृत है । इससे उसके वाक्य सत्य और विश्वसनीय हैं | पर लौकिक वाक्य तभी सत्य माने जा सकते हैं, उनका वक्ता प्रामाणिक मान लिया जाय ।
जब
आबू ( अर्बुद) - प्रसिद्ध पर्वत तथा तीर्थस्थान, जो राजस्थान के सिरोही क्षेत्र में स्थित है। यह मैदान के बीच में द्वीप की तरह उठा हुआ है। इसका संस्कृत रूप अर्बुद है जिसका अर्थ फोड़ा या सर्प भी है। इसे हिमालय का पुत्र कहा गया है । यहाँ वसिष्ठ का आश्रम था और राजा अम्बरीष ने भी तपस्या की थी। इसका मुख्य तीर्थ गुरुशिखर ५६५३ फुट ऊँचा है । यहाँ एक गुहा में दत्ताश्रेय और गणेश की मूर्तियां और पास में अचलेश्वर (शिव) का मन्दिर भी है । यहाँ शक्ति की पूजा अधरादेवी तथा अर्बुदमाता के रूप में होती है। यह प्रसिद्ध जैन तीर्थ भी है और देलवाड़ा में जैनियों के बहुत सुन्दर कलात्मक मन्दिर बने हुए हैं ।
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