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अलवणतृतीया अवगाहन
बृहस्पति तथा पुष्य की प्रतिमाओं का भी सर्वोपधि युक्त जल से स्नान कराकर पूजन करना चाहिए। दे० स्मृतिकौस्तुभ ( तिथि तथा संवत्सर) |
अलवण तृतीया - किसी भी मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया, किन्तु वैशाख शुक्ल पक्ष, भाद्रपद अथवा माघ शुक्ल पक्ष की तृतीया इस व्रत में विशेष महत्त्वपूर्ण होती है। स्त्रियाँ ही इसका मुख्यतः आचरण करती हैं । द्वितीया को उपवास, तृतीया को नमक रहित भोजन, गौरी देवी का पूजन जीवन पर्यन्त भी किया जा सकता है दे० कृत्यकल्पतरु
का व्रतकाण्ड ४८-५१ ।
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अलवार -- दक्षिण भारत की उपासक परम्परा से ज्ञात होता है कि अत्यन्त प्राचीन काल से उस प्रदेश में हरिभक्ति का प्रचार था। कहा जाता है कि उस प्रदेश में कलियुग के प्रारम्भ में प्रसिद्ध अलवार भक्त गण उत्पन्न हुए थे । इनमें तीन आचार्य हुए चोंहिये, पूदत्त एवं पे । पहिये का जन्म काञ्ची नगर में हुआ था। इनकी ध्यानावस्थित मूर्ति काशी के एक मन्दिर में है, जो वहाँ के सरोवर के बीच जल में बना है । पूदत्त का जन्म तिरुवन्न मामलयि नामक स्थान में, जिसे पहले मल्ला पुरी कहते थे, हुआ था । पे का जन्म मद्रास के मलयपुर नामक स्थान में हुआ। ये सदा श्री हरि के प्रेम में उन्मत्त रहा करते थे । इसी से इनका नाम 'वे' अर्थात् उन्मत्त पड़ गया।
तदनन्तर पाण्ड्य देश में 'तिकमिडिशि' और 'शठारि' का जन्म हुआ, जिन्हें शहरिपु या शठकोप भी कहते हैं। शठरिपु के शिष्य मधुर कवि का जन्म शठरिपु के जन्मस्थान के पास ही हुआ था। वे बड़ी मधुर भाषा में कविता किया करते थे, इसी से उनका नाम 'मधुर कवि' पड़ा । केरल प्रान्त के प्रसिद्ध राजा 'कुलशेखर' भी एक प्रधान अलवार हो गये हैं। उन्होंने 'मुकुन्दमाला' नामक एक स्तोत्र की रचना की । इनके पश्चात् 'पेरिया अलवार' अर्थात् सर्वश्रेष्ठ भक्त का जन्म हुआ। उनकी पुत्री अण्डाल बहुत बड़ी भक्त थी । बहुत ही मधुरभाषिणी होने के कारण उसे गोदा कहते हैं । उसने तमिलभाषा में 'स्तोत्ररत्नावली' नामक ग्रन्थ की रचना की जिसमें तीन सौ स्तोत्र हैं । इन स्तोत्रों का भक्तों में बड़ा आदर हैं। इस तरह अनेक अलवारों का विवरण मिलता है।
इस प्रकार जहाँ एक ओर दार्शनिक विद्वान् विशिष्टाइस मत की परम्परा बनाये हुए थे, वहां ये प्राचीन अलवार भी भक्ति-मङ्गा बहा रहे थे। दसवीं शताब्दी
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में इस मत को अपनी प्रतिभा से यामुनाचार्य ने पुनः उद्दीप्त किया था, रामानुजाचार्य ने इसका सर्वतोमुखी प्रचार किया ।
इस प्रकार तमिल देश में भक्तिमार्गी कवि गायकों की एक श्रृंखला वर्तमान थी। ये गायक एक से दूसरे मन्दिर तक घूमा करते थे, स्तुतियां बनाते और आनन्दातिरेक में उनका गायन अपने आराध्य देव की प्रतिमा के सम्मुख किया करते थे। बारह वैष्णव गायकों के नाम मिलते
हैं, जिन्हें अलवार के नाम से पुकारा जाता है । उनका धर्माचरण सबसे बढ़कर उन्मादपूर्ण भावना था । उनका सबसे बड़ा आनन्द था अपने आराध्य की मूर्ति की आँखों की ओर एकटक देखना तथा उनकी प्रशंसा संगीत में करना । गाते-गाते आत्मविभोर होकर देवालय की भूमि पर गिर जाना, रात भर देवता के अदर्शन के कारण रुग्ण तथा प्रातःकाल देवालय का द्वार खुलते ही देवदर्शन कर स्वास्थ्य लाभ करना आदि उनकी भक्ति के मधुर उदाहरण हैं । ये जाति से बहिष्कृत लोगों को शिक्षा देते थे तथा इनमें से कुछ अलवार स्वयं जातिबहिष्कृत थे । इनकी रचनाओं में स्थानीय कथाओं, देवालय के देव की स्तुति, मूर्ति के आकार-प्रकार के अतिरिक्त रामायण-महाभारत एवं पुराणों का प्रभाव स्पष्ट दीख पड़ता है। ये अलवार श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के शिक्षक माने जाते हैं। इनकी स्तुतियों का सामाजिक पूजा तथा विद्वानों की शिक्षाविधि आदि के अर्थ में बड़ा सम्माननीय स्थान है ।
अलोक - (१) मिथ्या; अवास्तविक; शशशृंग, आकाशपुष्प के खदृश, कल्पना मात्र मृपा 'ज्ञातेऽलीकनिमीलिते नयनयो:' ( अमरुशतक ) ।
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(२) अप्रिय तथवास महाराजो नालीकमधिगच्छति ।' ( रामायण ) अलौकिक — लौकिक प्रत्यक्ष का विषय नहीं, अथवा लोकव्यवहार में प्रचलित नहीं स्वर्ग या दिव्य लोक की वस्तु । श्रीमद्भागवत में कहा गया है :
'उपसंहर विश्वात्मन्नदो रूपमलौकिकम् ।'
[ हे विश्वात्मन् अपने इस अलौकिक रूप को हटा लो। ] भगवान् के नाम, रूप, लीला और धाम सभी अलौकिक है।
अवगाहन स्नान करना, गोता लगाना। इसके पर्याय है
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