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अतिथि-अतिविजयैकादशी
में मिलकर 'स्कन्ध' बनाते हैं । प्रत्येक वस्तु एक ही प्रकार के अणुसमूह से निर्मित होती है। अणु अपने अन्दर गति का विकास कर सकता है एवं यह गति इतनी तीव्र हो सकती है कि एक क्षण में वह विश्व के एक छोर से दूसरे छोर तक पहुँच सके। अणु-(२) काश्मीर शैव सम्प्रदाय के शैव आगमों और शिवसूत्रों का दार्शनिक दृष्टिकोण अद्वैतवादी है। 'प्रत्यभिज्ञा' (मनुष्य को शिव से अभिन्नता का अनवरत ज्ञान) मुक्ति का साधन बतायी गयी है। संसार को केवल माया नहीं समझा गया है। यह शिव का ही शक्ति के द्वारा प्रस्तुत स्वरूप है। सृष्टि के विकास की प्रणाली सांख्यमत के सदृश है, किन्तु इसकी कुछ अपनी विशेषताएँ हैं । इस प्रणाली को 'त्रिक' कहते हैं, क्योंकि यह तीन सिद्धान्तों को व्यक्त करती है। वे सिद्धान्त है-शिव, शक्ति एवं अणु, अथवा पति, पाश एवं पशु । अणु का ही नाम पशु है। अतिथि-हिन्दू धर्म में अतिथि पूजनीय व्यक्ति होता है। अथर्ववेद का एक मन्त्र आतिथ्य के गुणों का वर्णन करता है : 'आतिथेय को अतिथि के खा चुकने के बाद भोजन करना चाहिए। अतिथि को जल देना चाहिए' इत्यादि । तैत्तिरीय उपनिषद् भी आतिथ्य पर जोर देती हुई 'अतिथि देव' (अतिथि देवता) है की घोषणा करती है। ऐतरेय आरण्यक में कहा गया है कि केवल सज्जन ही आतिथ्य के पात्र है। अतिथियज्ञ दैनिक गृहस्थजीवन का नियमित अङ्ग था। इसकी गणना पञ्च महायज्ञों में की जाती है।
पुराणों और स्मृतियों में अतिथि के सम्बन्ध में विस्तृत वर्णन पाये जाते हैं : जो निरन्तर चलता है, ठहरता नहीं उसे अतिथि कहते हैं (अत् + इथिन्)। घर पर आया हुआ, पहले से अज्ञात व्यक्ति भी अतिथि कहलाता है । इसके पर्याय है आगन्तुक, आवेशिक, गृहागत आदि । इसका लक्षण निम्नांकित है :
यस्य न ज्ञायते नाम नच गोत्रं नच स्थितिः । अकस्माद् गृहमायाति सोऽतिथिःप्रोच्यते बुधैः ।। [ जिसका नाम, गोत्र, स्थिति नहीं ज्ञात है और जो अकस्मात् घर में आता है, उसे अतिथि कहा जाता है। उसके विमुख लौट जाने पर गृहस्थ को दोष लगता है :
अतिथिर्यस्य भग्नाशो गृहात् प्रतिनिवर्तते । स तस्मै दुष्कृतं दत्त्वा पण्यमादाय गच्छति ।।
[जिसके घर से अतिथि निराश होकर चला जाता है वह उस गृहस्थ को पाप देकर और उसके पुण्य लेकर चला जाता है। ] गौ के दुहने में जितना समय लगता है उतने समय तक घर के आँगन में अतिथि की प्रतीक्षा करनी चाहिए । अपनी इच्छा से वह कई दिन भी रुक सकता है (विष्णु पुराण)। मुहूर्त का अष्टम भाग गोदोहन काल कहलाता है, उस समय में देखा गया व्यक्ति अतिथि कहलाता है (मार्कण्डेय पुराण) । अतिथि मूर्ख है अथवा विद्वान् यह विचार नहीं करना चाहिए :
प्रियो वा यदि वा द्वेष्यो मुर्खः पतित एव वा ।
सम्प्राप्ते वैश्वदेवान्ते सोऽतिथिः स्वर्गसंक्रमः ।। [चाहे प्रिय, विरोधी, मूर्ख, पतित कोई भी हो वैश्वदेव के अन्त में जो आता है वह अतिथि है और स्वर्ग को ले जाता है । ] अतिथि से वेदादि नहीं पूछना चाहिए :
स्वाध्यायगोत्रचरणमपृष्ट्वापि तथा कुलम् । हिरण्यगर्भबुद्ध्या तं मन्येताभ्यागतं गृही । [स्वाध्याय, गोत्र, चरण, कुल बिना पूछे ही गृहस्थ अतिथि को विष्णु रूप माने । ] (विष्णुपुराण)। उससे देश आदि पूछने पर दोष लगता है : देशं नाम कुलं विद्यां पृष्ट्वा योऽन्नं प्रयच्छति । न स तत्फलमाप्नोति दत्त्वा स्वर्ग न गच्छति ।। [ देश, नाम, विद्या, कुल पूछकर जो अन्न देता है उसे पुण्यफल नहीं मिलता और फिर वह स्वर्ग को भी नहीं प्राप्त करता।] अतिथि को शक्ति के अनुसार देना चाहिए :
भं जनं हन्तकारं वा अग्र भिक्षामथापि वा। अदत्त्वा नैव भोक्तव्यं यथा विभवमात्मनः ।। [भोजन, हन्तकार, अग्र ग्रास अथवा भिक्षा विना दिये भोजन नहीं करना चाहिए। यथाशक्ति पहले देकर खाना चाहिए ।] भिक्षा आदि का लक्षण इस प्रकार है :
ग्रासप्रमाणा भिक्षा स्यादनं ग्रासचतुष्टयम् । अग्राच्चतुर्गणं प्रार्हन्तकारं द्विजोत्तमाः ।।
(मार्कण्डेय पुराण) [ग्रास भर को भिक्षा, ग्रास से चौगुने को अग्र, अग्र से चौगुने को हन्तकार कहते हैं।] अतिविजय कादशी-पुनर्वसु नक्षत्र से युक्त शुक्ल पक्षीय एकादशी। इस तिथि को एक वर्षपर्यन्त तिलों के प्रस्थ का दान किया जाता है। इस दिन विष्णु का व्रत किया जाता है । दे० हेमाद्रि; व्रत खण्ड, ११४७ ।
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