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ऐक्य-ऐन्द्रमहाभिषेक
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ऐक्य-वीरशैव भक्ति या साधना के मार्ग की छः अव- इनका नाम ऐतरेय पड़ा । इसका रचनाकाल बहुत प्राचीन स्थाएँ शिव के ऐक्य की ओर ले जाती हैं । वे हैं भक्ति, है। इसमें जनमेजय का उल्लेख है, अतः इसको कुछ महेश, प्रसाद, प्राणलिङ्ग, शरण एवं ऐक्य । ऐक्य भक्ति विद्वान् परवर्ती मानते हैं, किन्तु यह कहना कठिन है कि की चरम परिणति है, जिसमें शिव और भक्त का भेद यह जनमेजय महाभारत का परवर्ती है अथवा अन्य कोई मिट जाता है।
पूर्ववर्ती राजा। ऐड--देवी का एक बीजमन्त्र । रहस्यमय शाक्त मन्त्रों में __ ऐतरेय ब्राह्मण पर गोविन्द स्वामी तथा सायण के अधिकांश गूढार्थक ध्वनिसमूह हैं, यथा ह्रीङ्, हूङ, महत्त्वपूर्ण भाष्य हैं । सायणभाष्य के आजकल चार संस्कहम्, फट् । 'ऐड्' भी शाक्त मन्त्र की एक ध्वनि है। इस रण उपलब्ध हैं । आधुनिक युग में इसका पहला संस्करण ध्वनि के जप से अद्भुत शक्ति का उदय माना जाता है। अंग्रेजी अनुवाद के साथ मार्टिन हाग ने १८६३ ई० में ऐतरेय आरण्यक-आरण्यक शब्द की व्याख्या पूर्ववर्ती पृष्ठों प्रकाशित किया था । दूसरा संस्करण थियोडोर आडफरेस्टन में हो चुकी है। ऐतरेय आरण्यक ऋग्वेद के ऐसे ही दो ने १८७९ ई० में प्रकाशित किया। पण्डित काशीनाथ ग्रन्थों में से एक है। इसके पाँच अध्याय है, दूसरे और शास्त्री ने १८९६ में इसका तीसरा संस्करण निकाला तीसरे में वेदान्त का प्रतिपादन है अतः वे स्वतन्त्र और चौथा संस्करण ए० वी० कीथ द्वारा प्रकाशित किया उपनिषद् माने जाते हैं। इन दो अध्यायों का संकलन गया। महीदास ऐतरेय ने किया था । प्रथम के संकलक का पता ऐतरेयोपनिषद-एक ऋग्वेदीय उपनिषद् । ऋग्वेद के नहीं, चौथे-पाँचवें का संकलन शौनक के शिष्य आश्वलायन ऐतरेय आरण्यक में पाँच अध्याय और सात खण्ड हैं । ने किया। दे० 'आरण्यक' ।।
इनमें से चौथे, पाँचवें तथा छठे खण्डों का संयुक्त नाम ऐतरेय ब्राह्मण-ऋक् साहित्य में दो ब्राह्मण ग्रन्थ हैं। ऐतरेयोपनिषद् है। इन तीनों में क्रमशः जगत्, जीव पहले का नाम ऐतरेय ब्राह्मण तथा दूसरे का शाङ्खायन
तथा ब्रह्म का निरूपण किया गया है। इसकी गणना अथवा कौषीतकि ब्राह्मण है। दोनों ग्रन्थों का अत्यन्त ।
प्राचीन उपनिषदों में की जाती है। घनिष्ठ सम्बन्ध है, यत्र-तत्र एक ही विषय की व्याख्या
ऐतरेयोपनिषद्दीपिका-माधवाचार्य अथवा विद्यारण्यस्वामी की गयी है, किन्तु एक ब्राहाण में दूसरे ब्राह्मण से विप- द्वारा रचित ऐतरेयोपनिषद की शाङ्करभाष्यानुसारिणी रीत अर्थ प्रकट किया गया है । कौषीतकि ब्राह्मण में जिस
टीका। अच्छे ढंग से विषयों को व्याख्या की गयी है उस ढंग से ऐतिद्यतत्त्वसिद्धान्त-स्वामी निम्बार्काचार्य द्वारा रचित ऐतरेय ब्राह्मण में नहीं है । ऐतरेय ब्राह्मण के पिछले दस
माना गया एक ग्रन्थ । इसका उल्लेख अन्य ग्रन्थों में पाया अध्यायों में जिन विषयों की व्याख्या की गयी है वे कौषी
जाता है । उक्त आचार्य के किसी पश्चाद्भावी अनुयायी तकि में नहीं हैं, किन्तु इस अभाव को शाङ्खायनसूत्रों में द्वारा इसका निर्माण सम्भव है। (इसकी एक ताड़पत्रित पूरा किया गया है । आजकल जो ऐतरेय ब्राह्मण उपलब्ध प्रतिलिपि 'ऐतिह्यतत्त्वराद्धान्त' नाम से 'निम्बार्कपीठ, है उसमें कुल चालीस अध्याय हैं । इनका आठ पञ्चिकाओं
प्रयाग' के जगद्गुरुपुस्तकालय में सुरक्षित है।) में विभाग हआ है। शासायनब्राह्मण में तीस अध्याय ऐन्द्रमहाभिषेक-ऐतरेय ब्राह्मण में दो विभिन्न राजकीय हैं। ऐतरेय ब्राह्मण के अन्तिम दस अध्याय ऐतिहासिक यज्ञों का विवरण प्राप्त होता है। वे हैं-पुनरभिषेक (८. आख्यानों से भरे हैं । इसमें बहुत से भौगोलिक विवरण ५-११) एवं ऐन्द्रमहाभिषेक (८. १२-२०)। प्रथम कृत्य भी मिलते हैं। इन ब्राह्मणों में 'आख्यान' है, 'गाथाएँ' का राज्यारोहण से सम्बन्ध नहीं है । यह कदाचित् राजहै, 'अभियज्ञ गाथाएँ' भी है जिनमें बताया गया है कि सूय यज्ञ से सम्बन्धित है। ऐन्द्रमहाभिषेक का सिंहासनाकिस मन्त्र का किस अवसर पर किस प्रकार आविर्भाव रोहण से सम्बन्ध है । इसका नाम ऐन्द्रमहाभिषेक इसलिए हुआ है।
पड़ा कि इसमें वे क्रियाएं की जाती हैं, जो इन्द्र के स्वर्गऐतरेय ब्राह्मण के रचयिता महीदास ऐतरेय माने जाते राज्यारोहण के लिए की गयी मानी जाती हैं। पुरोहित है । ये इतरा नामक दासी से उत्पन्न हुए थे, इसलिए इस अवसर पर राजा के शरीर में इन्द्र के गुणों की
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