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माण्डूक्य उपनिषद्-माधवाचार्य
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माण्डूक्य उपनिषद्-अथर्ववेदी उपनिषदों में इसकी गणना चार नाम पाए जाते हैं: (१) गनेत्तिया (सं० = गणयिहोती है। इसका छोटा सा ही आकार है परन्तु सबसे त्रिका) (२) कञ्चनिया (३) माता (मालिका) तथा (४) प्रधान समझी जाती है। मैत्रायणीयोपनिषद् से कुछ सूत्र । (२) देवी का भी एक पर्याय माता है। शीतला तुल्यता होने से प्रायः लोग इसे उसके बाद की रचना (चेचक की बीमारी) को भी माता कहते हैं। यह धोर समझते हैं । गौडपादाचार्य ने इसके ऊपर कारिकाएँ एवं रोग के लिए भययुक्त प्रशंसात्मक उपाधि है। शङ्कर ने भाष्य रचा है। विज्ञानभिक्षु ने 'आलोक' नाम मातृका तन्त्र-'आगमतत्त्व विलास' में उद्धृत तन्त्रों की की व्याख्या की है । आनन्दतीर्थ, मथुरानाथ शुक्ल व्यास- सूची में एक तन्त्र का नाम । तीर्थ और रङ्गरामानुज आदि ने भाष्य टीका, क्षुद्र भाष्य मातृदत्त-हिरण्यकेशी गृह्यसूत्र पर भाष्य रचने वाले लिखा है तथा नारायण, शङ्करानन्द, ब्रह्मानन्द सरस्वती एक विद्वान् । राघवेन्द्र आदि ने इस पर वृत्तियाँ भी लिखी हैं। मातनवमीव्रत-भविष्योत्तर के अनुसार आश्विनकृष्ण माण्डूक्यकारिका-माण्डूक्य उपनिषद् की कारिकाएँ गौड- नवमी को यह व्रत माता (जननी) के प्रीत्यर्थ किया पादाचार्य ने लिखी हैं। गौडपादाचार्य शङ्कर के गुरु के जाता है । इस दिन विशेषतया माता और उसके तुल्य गुरु थे। गौडपाद ने वेदान्त सूत्र पर कोई भाष्य नहीं संमान्य चाची, दादी, मौसी आदि के निमित्त श्राद्ध-तर्पण लिखा किन्तु इनकी कारिकाएँ अद्वैत तथा मायावाद का किया जाता है। मबसे प्रारम्भिक जीवित आधार होने से बड़ी ही महत्त्व- मातृवध-इस कृत्य को कौशी० उप० ( ३.१ ) में जघन्य पूर्ण है । इस कारिका की 'मिताक्षरा' नामक एक टीका अपराध कहा गया है । इसका प्रायश्चित्त सत्य ज्ञान से भो मिलती है। परवर्ती आचार्यों ने इस कारिका को किया जा सकता है। परवर्ती धर्मशास्त्र साहित्य में भी प्रमाण रूप से स्वीकार किया है ।
मातृवध बहुत बड़ा अपराध और पाप माना गया है। माण्डूक्यभाष्य-माण्डूक्य उपनिषद् का यह भाष्य शङ्करा
मातव्रत-(१) अष्टमी को इस व्रत का अनुष्ठान किया चार्य द्वारा लिखा गया है ।
जाता है । यह तिथि व्रत है । मातृ देवता (माता देवियाँ) माण्डूक्योपनिषद्कारिका-दे० 'माण्डूक्य कारिका' ।
ही इस अवसर पर पूजी जाती हैं । ममुष्य को इस दिन मातङ्गी-शाक्त मतानुसार दस महाविद्याओं में से एक
उपवास रखकर भक्तिपूर्वक मातृ देवताओं से अपराधों की 'मातङ्गो' है।
क्षमा-याचना करनी चाहिए। वे कल्याण तथा स्वास्थ्य मातरिश्वा-(१) ऋग्वेद के वर्णनानुसार अग्नि तथा सोम
प्रदान करती हैं। आकाश से नीचे पृथ्वी पर आये। मातरिश्वा अग्नि को (२) आश्विन मास की नवमी को राजा तथा सभी दूर से लाया (ऋ० ३.९,५; ६.७,४)। मातरिश्वा का वर्णों के अनुयायी मात देवताओं की ( जो अनेक है ) अर्थ ऋग्वेद में विद्य त् अथवा (अन्य मत से) आँधी है। पूजा कर सफलताएँ प्राप्त करें। इस व्रत के करने से अथर्ववेद के बाद इसका आँधी ही साधारण अर्थ हो गया जिसके बच्चे मर जाते हों या केवल एक ही सन्तान हो, है । यदि मान लें कि आंधी एवं विद्य त एक साथ ही वह स्त्री सन्तान वाली हो जाती हैं। अंधड़ के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं तो ऋग्वेद के अर्थ माधव-वाजसनेयी संहिता के भाष्यकारों में से एक माधव का पूर्णतया समन्वय हो जाता है । इस प्रकार मातरिश्वन थे। साम संहिता के भाष्यकारों में भी एक माधव हए को अग्नि का आँधी के गुणों के साथ विद्य त् वाला स्वरूप
हैं । उपरोक्त दोनों माधव एक हैं या नहीं, कुछ नहीं कहा कहा जाना उचित है । यह वैदिक पुराकथा 'प्रोमिथियस्' जा सकता । दे० 'माधवाचार्य' । की यूनानी पुराकथा से मिलता-जुलती है।
माघवस्वामी-सामवेद की राणायनीय शाखा से सम्बन्धित (२) ऋग्वेद (८.५२,२) के बालखिल्य सूक्त में मात- द्राह्यायण श्रौतसुत्र अथवा वशिष्ठसूत्र का भाष्य माधव रिश्वन को मेध्य तथा पृवध्र के साथ यज्ञ करने वाला __स्वामी ने किया है। कहा गया है।
माधवाचार्य-प्रसिद्ध वेद व्याख्याता सायणाचार्य के भाई माता-(१) माला (जपार्थ) के लिए प्राचीन साहित्य में एवं विद्यातीर्थ के शिष्य । विद्यातीर्थ की मृत्यु के पश्चात्
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