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________________ प्राप्तिवत-प्रायश्चित्त के सम्बन्ध से विध्यात्मक उपदेश हैं। पाँचवें प्रपाठक में वृद्ध और अवृद्ध भाव की व्यवस्था है। छठे प्रपाठक में यह व्यवस्था है कि सामभक्ति समूह कहाँ गाया जाय और कहाँ न गाया जाय । सातवें और आठवें प्रपाठक में लोप, आगम और वर्णविकार आदि के सम्बन्ध में उपदेश हैं। नवें प्रपाठक में भाव कथन है और दसवें तथा आगे के प्रपाठकों में कृष्टाकृष्ट निर्णय और प्रस्ताव के लक्षणादि बताये गये हैं । अथर्वप्रातिशाख्य के अन्तर्गत शौनकीय चतुरध्यायिका है, जिसमें (१) ग्रन्थ का उद्देश्य, परिचय, और वृत्ति; (२) स्वर और व्यञ्जन का संयोग, उदात्तादि लक्षण, प्रगृह्य, अक्षर विन्यास, युक्त वर्ण, यम, अभिनि- धान, नासिक्य, स्वरभक्ति, स्फोटन, कर्षण और वर्णक्रम; (३) संहिता प्रकरण; (४) क्रम निर्णय; (५) पद निर्णय और (६) स्वाध्याय की आवश्यकता के सम्बन्ध में उपदेश ये छः विषय बताये गये हैं । प्रचलित है। इसकी कई व्युत्पत्तियां बतायी गयी है। निबन्धकारों ने इसका व्युत्पत्तिगत अर्थ 'प्रायः (= तप), चित्त' (= दृढ संकल्प) अर्थात् तप करने का दृढ संकल्प किया है । याज्ञवल्क्यस्मृति (३.२०६) की बालम्भट्टी टीका में एक श्लोकाद्ध उद्धृत है, जिसके अनुसार इस शब्द की व्युत्पत्ति 'प्रायः = पाप, चित्त = शुद्धि' अर्थात् पाप की शुद्धि की गयी है (प्रायः पापं विनिर्दिष्टं चित्तं तस्य विशोधनम्) । पराशरमाधवीय (२.१.३) में एक स्मृति के आधार पर कहा गया है कि प्रायश्चित्त वह क्रिया है जिसके द्वारा अनुताप करने वाले पापी का चित्त मानसिक असन्तुलन से (प्रायशः) मुक्त किया जाता है। प्रायश्चित्त नैमित्तिकीय कृत्य है किन्तु इसमें पापमोचन की कामना कर्ता में होती है, जिससे यह काम्य भी कहा जा सकता है। प्रातिशाख्यों में से कुछ बहुत प्राचीन हैं तो कोई-कोई पाणिनीय सूत्रों के बाद के भी हैं। कई पाश्चात्य विद्वानों का मत है कि वाजसनेय प्रातिशाख्य के रचने वाले कात्यायन तथा पाणिनिसूत्रों के वार्तिककार कात्यायन दोनों एक ही व्यक्ति हैं । वार्तिकों में जिस तरह उन्होंने पाणिनि की समालोचना की है, उसी तरह प्रातिशाख्यों में भी की है। इसी से निश्चय होता है कि वाजसनेय प्रातिशाख्य पाणिनि के सूत्रों के बाद का है। प्रातिशाख्य में शिक्षा का विषय अधिक है और व्याकरण का विषय प्रासंगिक है। वास्तविक प्रातिशाख्य में व्याकरण के सम्पूर्ण लक्षणों का अभाव है, शिक्षा का विषय ही प्रातिशाख्यों की विशेषता है, यद्यपि वैज्ञानिक रीति से इस विषय के ऊपर शौनकीय शिक्षा में ही प्रतिपादन हुआ है। प्राप्तिवत-जो व्यक्ति एकभक्त पद्धति से एक वर्ष पर्यन्त आहारादि करता है और भोजनसहित जलपूर्ण कलश दान करता है, वह एक कल्प तक शिवलोक में वास करता है। प्रायश्चित्त-वैदिक ग्रन्थों में प्रायश्चित्ति और प्रायश्चित्त दोनों शब्द एक ही अर्थ में पाये जाते हैं । इनसे पापमोचन के लिए पार्मिक कृत्य अथवा तप करने का बोध होता है। परवर्ती साहित्य में 'प्रायश्चित्त' शब्द ही अधिक पाप ऐच्छिक और अनैच्छिक दो प्रकार के होते हैं, इसलिए धर्मशास्त्र में इस बात पर विचार किया गया है कि दोनों प्रकार के पापों में पायश्चित्त करना आवश्यक है या नहीं । एक मत है कि केवल अनैच्छिक पाप प्रायश्चित्त से दूर होते हैं और उन्हीं को दूर करने के लिए प्रायश्चित्त करना चाहिए; ऐच्छिक पापों का फल तो भोगना ही पड़ता है, उनका मोचन प्रायश्चित्त से नहीं होता (मनु ११.४५; याज्ञ० ३.२२६)। दूसरे मत के अनुसार दोनों प्रकार के पापों के लिए प्रायश्चित्त करना चाहिए; भले ही पारलौकिक फलभोग (नरकादि) मनुष्य को अपने दुष्कर्म के कारण भोगना पड़े। प्रायश्चित्त के द्वारा वह सामाजिक सम्पर्क के योग्य हो जाता है (गौतम १९.७.१)। बहुत से ऐसे अपराध है जिनके लिए राजदण्ड और प्रायश्चित्त दोनों का विधान धर्मशास्त्रों में पाया जाता है। जैसे-हत्या, चोरी, सपिण्ड से योनिसम्बन्ध, धोखा आदि । इसका कारण यह है कि राजदण्ड से मनुष्य के शारीरिक कार्यों पर नियन्त्रण होता है, किन्तु उसकी मानसिक शुद्धि नहीं होती और वह सामाजिक सम्पर्क के योग्य नहीं बनता । अतः धर्मशास्त्र में प्रायश्चित्त भी आवश्यक बतलाया गया है। प्रायश्चित्त का विधान करते समय इस बात पर विचार किया गया है कि पाप अथवा अपराध कामतः (इच्छा से) किया गया है अथवा अनिच्छा से (अकामतः); प्रथम अपराध है अथवा पुनरावृत्त । साथ ही परिस्थिति, समय, स्थान, वर्ण, वय, शक्ति, विद्या, धन हत्या, चोरी है कि राज किन्तु उर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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