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प्रसू-प्राच्य
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वीरशैव मतावलम्बियों में जब बालक का जन्म होता का मधुसूदन सरस्वती द्वारा रचित एक ग्रन्थ भी है। इसमें है तो पिता अपने गुरु को आमन्त्रित करता है । गुरु सब शास्त्रों का सामञ्जस्य करके उनका अद्वैत में समाहार आकर अष्टवर्गसमारोह की परिचालना उस शिशु को दिखलाया गया है। इसकी रचना १६०७ वि० से पूर्व लिङ्गायत बनाने के लिए करता है। ये आठ वर्ग है- हुई थी। गुरु, लिङ्ग, विभूति, रुद्राक्ष, मन्त्र, जङ्गम, तीर्थ एवं प्रह्लादकुण्ड-कहा जाता है कि पाताल से पृथ्वी का उद्धार प्रसाद, जो उसकी पाप से रक्षा करते हैं । शिव को प्राप्त करते हुए हिरण्याक्ष वध के पश्चात् वराह भगवान् यहाँ करने के मार्ग में लिङ्गायतों को छः अवस्थाओं के मध्य शिलारूप में स्थित हो गये । यहाँ गङ्गाजी में प्रह्लादकुण्ड जाना पड़ता है-भक्ति, महेश, प्रसाद, प्राणलिङ्ग, शरण है । यहाँ पर स्नान करना पुण्यकारक माना जाता है। तथा ऐक्य ।
प्राकृत-(१) प्रकृति - संस्कृत भाषा के आधार पर व्यवहृत, (२) देवताओं को अर्पण किये गये नैवेद्य का नाम भी
अथवा संस्कृत से अपभ्रंश रूप में निर्गत ( हेमचन्द्र )। प्रसाद है, उसका कुछ अंश भक्तों में बाँटा जाता है।
यह अपठित साधारण जनता की बोलचाल की भाषा प्रसू-वैदिक ग्रन्थों के उल्लेखानुसार नयी घास या पौधे,
थी। ग्रियर्सन ने प्राथमिक, माध्यमिक तथा तृतीय जो यज्ञ में प्रयुक्त होते थे। साधारणतया अब यह जननी
प्राकृत के रूप में इस भाषा के तीन चरण दिखाये हैं । का पर्याय है।
प्राथमिक का उदाहरण वैदिक काल के बाद की भाषा, प्रसूति-स्वायंभुव मनु और शतरूपा की पुत्री । विष्णुपुराण
माध्यमिक का पालि तथा तृतीय का उदाहरण उत्तर के सातवें अध्याय में कथित है कि ब्रह्मा ने विश्वरचना के
भारत की प्रादेशिक अपभ्रंश भाषाएँ है। पश्चात् अपने समान ही अनेक मानसिक पुत्र उत्पन्न किये, जो प्रजापति कहलाये। इनकी संख्या तथा नाम पर सभी
(२) इसका दूसरा अर्थ है प्रकृति से उत्पन्न अर्थात्
संस्कारहीन व्यक्ति । इसका प्रयोग असभ्य, जंगली या पुराण एकमत नहीं हैं। फिर उन्होंने स्वायम्भुव मनु को
गँवार मानव के लिए होता है। जीवों की रक्षा के लिए उत्पन्न किया । मनु की पुत्री प्रसूति का विवाह प्रजापति दक्ष के साथ हुआ जो अनेक
प्राचीनयोगीपुत्र-प्राचीनयोग नामक कुल की एक महिला देवात्माओं के पूर्वज बने ।
के पुत्र, आचार्य, जो बृहदारण्यक उप० ( २.६.२ काण्व ) प्रस्तर-वैदिक ग्रन्थों के अनुसार यज्ञासन के लिए बिछायी
की प्रथम वंशतालिका ( गुरुपरम्परा ) में पाराशर्य के हुई घास ।
शिष्य कहे गये हैं । छान्दोग्य ( ५.१३,१ ) तथा तैत्तिरीय प्रस्तोता-यज्ञ के उद्गाता पुरोहित का सहायक पुरोहित ।
उप० ( १.६,२) में एक 'प्राचीनयोग्य' ऋषि का उल्लेख यह साममन्त्रों का पूर्वगान करता था।
मिलता है, यही पितबोधक शब्द शतपथ ब्रा० ( १०.६, प्रस्थानत्रय-वेदान्तियों की बोलचाल में उपनिषदों, भग
१,५) तथा जैमिनीय उ० ब्रा० में भी मिलता है। वद्गीता तथा वेदान्तसूत्र को तत्त्वज्ञान के मूलभूत आधार- प्राची सरस्वती-कुरुक्षेत्र का तीर्थस्थल, जहाँ पर सरस्वती ग्रन्थ माना गया है। पश्चात ये ही प्रस्थानत्रय कहे जाने नदी पश्चिम से पूर्वाभिमुख बहती थी। अब तो यहाँ एक लगे । इन्हें वेदान्त के तीन स्रोत भी कहते हैं। इनमें जलाशय मात्र शेष है, आस-पास पुराने भग्नावशेष पड़े १२ उपनिषदें ( ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य,
हए हैं। सूनसान मन्दिर जीर्ण दशा में हैं। यात्री यहाँ तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य, बहदारण्यक, कौषीतकि तथा पिण्डदान करते हैं। श्वेताश्वतर ) श्रुतिप्रस्थान कहलाती हैं। दूसरा प्रस्थान प्राच्य-मध्य देश की अपेक्षा पूर्व के निवासी । ये ऐत० ब्रा० जिसे न्यायप्रस्थान कहते हैं, ब्रह्मसूत्र है। तीसरा प्रस्थान (८.१४ ) में जातियों की तालिका में उद्धृत हैं। इनमें गीता स्मृतिप्रस्थान कहलाता है । शङ्कराचार्य ने गीता के काशी, कोसल, विदेह तथा सम्भवतः मगध के निवासी लिए जहाँ-तहाँ 'स्मृति' शब्द का उल्लेख किया है। सम्मिलित थे । शत० ब्रा० में प्राच्यों द्वारा अग्नि को शर्व प्रस्थानत्रयी-दे० 'प्रस्थानत्रय' ।
के नाम से पुकारा गया है तथा उनकी समाधि बनाने की प्रस्थानभेद-ईश्वर की प्राप्ति के विभिन्न मार्ग। इस नाम प्रथा को अस्वीकृत किया गया है।
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