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बलि देवी चामुण्डा को देने की योजना करता है, किन्तु अन्त में नायक के द्वारा मारा जाता है । अघोर पंथ-अघोर पंथ को कापालिक मत भी कहते हैं। इस पंथ को माननेवाले तन्त्रिक साधु होते हैं, जो मनुष्य की खोपड़ी लिये रहते हैं और मद्य, मांसादि का सेवन करते हैं । ये लोग भैरव या शक्ति को बलि चढ़ाते हैं । पहले ये नर बलि भी किया करते थे । गृहस्थों में इस मत का प्रचार प्रायः नहीं देखा जाता । ये स्पष्ट ही वाममार्गी शैव होते हैं और श्मशान में रहकर बीभत्स रीति से उपासना करते हैं। इनमें जाति-पांति का कोई विवेचन नहीं होता। इन्हें औपड़ भी कहते हैं। ये देवताओं की मूर्तिपूजा नहीं करते। अपने शवों को समाधि में गाड़ते हैं । इस पंथ को 'अवधूत' अथवा 'सरभंग' मत भी कहते हैं । आजकल इसका सम्बन्ध नाथ पंथ के हठयोग तथा तान्त्रिक वाममार्ग से है। इसका मूलस्थान आबू पर्वत माना जाता है । किसी समय में बड़ोदा में अघोरेश्वरमठ इसका बहुत बड़ा केन्द्र था काशी में कृमिकुंड भी इसका बहुत बड़ा संस्थान है । इस पंथ का सिद्धान्त निर्गुण अद्वैतवाद से मिलता-जुलता है। साधना में यह योग तथा लययोग को विशेष महत्त्व देता है । आचार में, जैसा कि लिखा जा चुका है, यह वाममार्गी है । समत्व साधना के लिए विहित-अविहित, उचित-अनुचित आदि के विचार का त्याग यह आवश्यक मानता है । अघोरियों की वेश-भूषा में विविधता है। किन्हीं का वेश श्वेत और किन्ही का रंगीन होता है। इनके दो वर्ग है - ( १ ) निर्वाणी (अवधूत) तथा (२) गृहस्थ परन्तु गृहस्थ प्रायः नहीं के बराबर हैं। अघोर पंथ के साहित्य का अभी पूरा संकलन नहीं हुआ है। किनाराम का 'विवेकसार', 'भिनक - दर्शनमाला' तथा टेकमनराम कृत 'रत्नमाला' आदि ग्रन्थ इस सम्प्रदाय में प्रचलित है। अघोर शिवाचार्य श्रीकण्ठ मत के अनुयायी । अनुयायी । उन्होंने 'मृग्रेन्द्रसंहिता' की व्याख्या लिखी है। विमत में इनका ग्रन्थ प्रामाणिक माना जाता है। विद्यारण्य स्वामी ने सर्वदर्शनसंग्रह में शैव दर्शन के प्रसंग में अघोर शिवाचार्य के मत को उद्धृत किया है। श्रीकण्ठ ने पांचवीं शताब्दी में । जिस शैव मत को नव जीवन प्रदान किया था, उसी को पुष्ट करने की चेष्टा अघोर शिवाचार्य ने ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी में की ।
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अघोर पंच-अङ्गारकचतुर्थी
अघोरा - जिसकी मूर्ति भवानक नहीं है। ('अति भयानक' ऐसा इस व्युत्पत्ति का व्यंग्यार्थ है ।) भाद्रपद कृष्णा चतुर्दशी अघोरा है
भाद्रे मास्यसिते पक्षे अघोराख्या चतुर्दशी । तस्यामाराधितः स्थाणुर्नयेच्छिवपुरं ध्रुवम् ॥ [ भाद्रपद के कुष्णपक्ष की अघोरा नामक चतुर्दशी के दिन शंकर की आराधना करने पर उपासक अवश्य ही शिवपुरी को प्राप्त करता है ।]
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अघोरी - अघोरपंथ का अनुयायी प्राचीन पाशुपत संप्रदाय का सम्प्रति लोप सा हो गया है । किन्तु कुछ अघोरी मिलते हैं, जो पुराने कापालिक है। अपोरी ही कबीर के प्रभाव से औघड़ साधु हुए। (विशेष विवरण के लिए दे० 'अघोर पंथ' ।)
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अङ्गद - (१) सिक्ख संप्रदाय में गुरु नानक के पश्चात् नौ गुरु हुए, उनमें प्रथम गुरु अङ्गद थे । इन्होंने गुरुमुखी लिपि चलायी जो अब पंजाबी भाषा की लिपि समझी जाती है। इनके लिखे कुछ पद भी पाये जाते हैं । इनके बाद गुरु अमरदास व गुरु रामदास हुए ।
(२) रामायण का एक पात्र जो किष्किन्धा के राजा बाली का पुत्र था । राम का यह परम भक्त था । राम की ओर से रावण की सभा में इसका दौत्य कर्म प्रसिद्ध है। अङ्गमन्त्र - नरसिंह सम्प्रदाय की दो उपनिषदों में से प्रथम । 'नृसिंह पूर्वतापनीय' के प्रथम भाग में नृसिंह के मन्त्रराज का परिचय दिया गया है तथा उसकी आराधना विधि दी गयी है। साथ ही चार 'अङ्गमन्त्रों' का भी विवेचन एवं परिचय दिया गया है ।
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अङ्गारक चतुर्थी - (१) किसी भी मास के मङ्गलवार को आनेवाली चतुर्थी मत्स्यपुराण के अनुसार 'अङ्गारक चतुर्थी' है । इसे जीवन में आठ बार चार बार अथवा जीवन पर्यन्त करना चाहिए। इसमें मङ्गल की पूजा की जाती है। 'अग्नि' (ऋ० ० ८ ४४. १६) इसका मन्त्र है। शूद्रों को केवल मङ्गल का स्मरण करना चाहिए । कुछ पुराणों में इसको सुखव्रत भी कहा गया है। इसका ध्यानमन्त्र है :
'अवन्तीसमुत्त्वं सुमेषासनस्थं धरानन्दनं रक्तवस्त्रं समी
दे० कृ० क० व्रतकाण्ड, ७७-७९ हेमाद्रि, व्रतखण्ड, जिल्द १, ५०८-५०९ ।
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