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गूढार्थदीपिका - गृहपञ्चमी
अद्रोहेणैव भूतानामल्पद्रोहेण वा पुनः । या वृत्तिस्तां समास्थाय विप्रो जीवेदनापदि ॥ यात्रामात्रप्रसिद्ध्यर्थं स्वैः कर्मभिरगर्हितैः । अक्लेशेन शरीरस्य कुर्वीत धर्मसञ्चयम् ।। ऋतानृताभ्याज्जीवेत्त, मृतेन प्रमृतेन वा । सत्यानृताभ्यामपि वा न श्ववृत्या कदाचन ॥ ऋतमुञ्छशिलं ज्ञेयममृतं स्यादयाचितम् ॥ मृतं तु याचितं भैक्ष्यं प्रमृतं कर्षणं स्मृतम् । सत्यानृतं तु वाणिज्यं तेन चैवापि जीयते । सेवा श्ववृत्तिराख्याता तस्मात्तां परिवर्जयेत् ॥ द्विज आयु के प्रथम चतुर्थ भाग को गुरुगृह में व्यतीत कर द्वितीय - चतुर्थ भाग में विवाह कर पत्नी के साथ घर में वास करे । सम्पूर्ण जीवधारियों के अद्रोह अथवा अल्पद्रोह से अपनी वृत्ति की स्थापना कर विप्र को आपत्तिरहित अवस्था में जीवन व्यतीत करना चाहिए। अपनी जीवनयात्रा की सिद्धि मात्र के लिए अपने अनिन्दनीय कर्मों द्वारा शरीर को क्लेश दिये बिना उसे धनसञ्चयन करना चाहिए। उसे ऋत और अनृत से जीना चाहिए अथवा मृत और प्रमृत से अथवा सत्यानृत से, किन्तु श्वान - वृत्ति (नौकरी) से कभी नहीं । ऋत उञ्छशिल (खेत में पड़े हुए दानों को चुनना ) को, अमृत अयाचित (बिना मागे प्राप्त) को, मृत याचित भिक्षा को प्रमृत कर्षण ( बलात् प्राप्त ) को कहा गया है । सत्यानृत वाणिज्य है । उससे भी जीवन व्यतीत किया जा सकता है । श्वानवृत्ति सेवा नाम से प्रसिद्ध है । इसलिए इसका त्याग करना चाहिए । ]
गरुड पुराण ( ४९ अध्याय ) में गृहस्थधर्म का वर्णन सामान्यतः इस प्रकार से किया गया है :
सर्वेषामाश्रमाणान्तु दैविध्यन्तु चतुर्विधम् । ब्रह्मचार्युपकुर्वाणो नैष्ठिको ब्रह्मतत्परः ॥ योऽधीत्य विधिवद्वेदान् गृहस्थाश्रममाव्रजेत् । उपकुर्वाणको ज्ञेयो नैष्ठिको मरणान्तकः ॥ अग्नयोऽतिथिशुश्रूषा यज्ञो दानं सुरार्चनम् । गृहस्थस्य समासेन धर्मोऽयं द्विजसत्तमाः ॥ उदासीनः साधकश्च गृहस्थो द्विविधो भवेत् । कुटुम्बभरणे युक्तः साधकोऽसौ गृही भवेत् ॥ ऋणानि त्रीण्युपाकृत्य त्यक्त्वा भार्याधनादिकम् । एकाकी विचरेद्यस्तु उदासीनः स मौक्षिकः ।।
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[ ब्रह्मचारी (स्नातक) के दो प्रकार होते हैं ---- उपकुर्वाण और नैष्ठिक । जो वेदों का विधिवत् अध्ययन कर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता है यह उपकुर्वाण और जो आमरण गुरुकुल में रहता है वह नैष्ठिक है । अग्न्याधान, अतिथिसेवा, यज्ञ, दान, देवपूजन ये संक्षेप में गृहस्थ के धर्म हैं । उदासीन और साधक-गृहस्थ दो प्रकार का होता है । कुटुम्बभरण में नियमित लगा हुआ गृहस्थ साधक होता है । ऋणों - ऋषिऋण, देवऋण और पितृऋण से मुक्त होकर, भार्या और धन आदि को छोड़कर मोक्ष की कामना से जो एकाकी विचरता है वह उदासीन है । ]
प्रत्येक गृहस्थ को तीन ऋणों से मुक्त होना आवश्यक है । वह नित्य के स्वाध्याय द्वारा ऋषिऋण से, यज्ञ द्वारा देवऋण से और सन्तानोत्पत्ति द्वारा पितृऋण से मुक्त होता है । उसके नित्य कर्मों में पञ्चमहायज्ञों का अनुष्ठान अनिवार्य है। ये यज्ञ हैं - ( १ ) ब्रह्मयज्ञ ( स्वाध्याय) (२) देवयज्ञ ( यज्ञादि ) (३) पितृयज्ञ ( पितृतर्पण और पितृसेवा ) ( ४ ) अतिथियज्ञ ( संन्यासी, ब्रह्मचारी, अभ्यागत की सेवा) और भूतयज्ञ अर्थात् जीवधारियों की सेवा । दे० 'आश्रम' और 'गार्हस्थ्य' ।
गूढार्थदीपिका - स्वामी मधुसूदन सरस्वती कृत श्रीमद्भगवद्गीता की टीका । इसे गीता की सर्वोत्तम व्याख्या कह सकते हैं । शंकराचार्य के मतानुसार रचित यह व्याख्या विद्वानों में अत्यन्त आदर के साथ प्रचलित है। इसका रचनाकाल सोलहवीं शताब्दी है ।
गृत्समद - एक वैदिक ऋषि । ऋग्वेद की ऋचाएँ सात वर्गों में विभक्त हैं एवं वे सात ऋषिकुलों से सम्बन्धित हैं । इनमें प्रथम ऋषिकुल के ऋषि का नाम गृत्समद है । सर्वानुक्रमणिका, ऐतरेय ब्राह्मण (५.२.४) एवं ऐतरेय आरण्यक ( २.२.१ ) में गृत्समद को ऋग्वेद के द्वितीय मण्डल का साक्षात्कार करने वाला कहा गया है। कौषीतकि ब्राह्मण ( २२.४ ) में गृत्समद को भार्गव भी कहा गया है । गृहपञ्चमी - पञ्चमी के दिन इस व्रत का अनुष्ठान होता है । इसमें ब्रह्मा के पूजन का विधान है। सुर्खी, चूना, सूप, धान्य साफ करने का यन्त्र, रसोई के बर्तन, (गार्हस्थ्य की पाँच आवश्यक वस्तुएँ) तथा जलकलश का दान किया जाता है । दे० हेमाद्रि, १.५७४; कृत्यरत्नाकर, ९८ ( सात
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