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हरवत-हरिद्वार
हरवत-अष्टमी के दिन कमल दल की आकृति बनाकर थी। देवताओं ने उनको यह वरदान भी दिया था कि भगवान् हर की पूजा तथा घृत की धारा छोड़ते हुए जो स्त्री-पुरुष हरी घास पर बैठकर काली की पूजा समिधाओं से हवन करना चाहिए ।
करेंगे, वे सुख, दीर्घायु तथा सौभाग्य प्राप्त करेंगे। व्रत हरि-विष्णु का एक पर्याय । इन्द्र, सिंह, घोड़ा, हरे रंग, का नाम हरिकाली है, किन्तु इसका हरि (विष्णु ) के आदि को भी हरि कहते हैं। हरे (श्याम) वर्ण के कारण
के अर्थ में आने का प्रश्न ही नहीं उठता। हरि का यहाँ विष्णु या कृष्ण भी हरि कहलाते हैं।
अर्थ है भरी या ( श्यामा ) काली, जो गौरवर्णा नहीं ___ हरि, विष्णु और कृष्ण का अभेद स्वीकार कर पुराणों थी। ने हरि भक्ति का विपुल वर्णन किया है। पद्मपुराण हरिक्रीडाशयन अथवा हरिक्रीडायन-कार्तिक अथवा वैशाख ( उत्तर खण्ड, अध्याय १११ ) में कृष्ण-हरि के एक सौ मास की द्वादशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। आठ नामों का उल्लेख है :
इसके हरि देवता हैं । एक ताम्रपात्र में मधु भरकर इसके श्रीकृष्णाष्टोत्तरशतं नाम मङ्गलदायकम् ।
ऊपर नृसिंह भगवान् की चतुमुखी प्रतिमा, जिसमें तत् शृणुष्व महाभाग सर्वकल्मषनाशनम् ॥
माणिक्य के आयुध लगे, मूगों के नख बनाये गये हों तथा श्री कृष्णः पुण्डरीकाक्षो वासुदेवो जनार्दनः ।
अन्यान्य रत्नों को वक्ष, चक्ष, सिर तथा स्रोतों पर नारायणो हरिविष्णुर्माधवः पुरुषोत्तमः ।। आदि० लगाकर स्थापित किया जाय । तदनन्तर ताम्रपात्र को जल हरितालिका-पार्वतीजी की आराधना का सौभाग्य व्रत, से भर दिया जाय और नृसिंह भगवान् का षोडशोपचार जो केवल महिलाओं के लिए है और भाद्रपद शुक्ल
पूजन तथा रात्रि जागरण होना चाहिए। इससे व्रती तृतीया को प्रायः निर्जल किया जाता है । रात्रि में शिव- जंगलों, अरण्यों तथा युद्धस्थलों में संकटमुक्त होकर गौरी की पूजा और जागरण होता है। दूसरे दिन प्रातः निर्भीक विचरण करता है । ( नृसिंह पुराण से ) विसर्जन के पश्चात् अन्न-जल ग्रहण किया जाता है। हरिद्वागणेश-गणेश जी का एक विग्रह । यह हरिद्रा 'अलियों'। ( सखियों) के द्वारा 'हरित' ( अपहृत ) (हल्दी) के वर्ण का होता है अतः इसे हरिद्रा-गणेश होकर पार्वती ने एक कन्दरा में इस व्रत का पालन किया कहते हैं । इनका मन्त्र है : था, इसलिए इसका नाम 'हरितालिका' प्रसिद्ध हो गया। पञ्चान्तको धरासंस्थो बिन्दुभूषितमस्तकः । हरिकालीव्रत-तृतीया को अनाज साफ करने वाले सूपमें
एकाक्षरो महामन्त्रः सर्वकामफलप्रदः ॥ सप्त धान्य बोकर उनके उगे हुए अंकुरों पर काली पूजा
इसका ध्यान इस प्रकार किया जाता है : की जाती है । तदनन्तर सधवा नारियों द्वारा अंकुरों को
हरिद्राभं चतुर्बाहुं हारिद्रयवसनं विभुम् । सिरों पर ले जाकर किसी तडाग या सरिता में विसर्जन
पाशाङ्कुशधरं देवं मोदकं दन्तमेव च ॥ कर दिया जाता है। कथा इस प्रकार है : काली दक्ष
तन्त्रसार में पूजा-विधान का सविस्तर वर्णन है। प्रजापति की पुत्री हैं तथा दक्ष ने उनका महादेव जी के हरिद्वार-हरिद्वार अथवा मायापुरी भारत की सात पवित्र साथ परिणय कर दिया । वर्ण से वे कृष्ण है। एक समय पुरियों में से है। इसका अर्थ है 'हरि (विष्णु) का देवताओं की सभा में महादेव जी ने काली के शरीर की द्वार। जहाँ गङ्गा हिमालय से मैदान में उतरती है, वहाँ तुलना काले सुरमें से कर डाली । इससे वे ऋद्ध होती हुई यह स्थित है। इसलिए इसका विशेष महत्त्व है। प्रति अपना कृष्ण वर्ण घास वाली भूमि पर छोड़कर स्वयं बारहवें वर्ष जब सूर्य और चन्द्र मेष राशि पर तथा अग्नि में प्रविष्ट हो गईं। द्वितीय जन्म में गौरी रूप में बृहस्पति कुम्भ राशि में स्थित होते हैं तब यहाँ कुम्भ का उनका पुनः आविर्भाव हुआ और उन्होंने महादेव जी को पर्व होता है। उसके छठे वर्ष अद्धकुम्भी होती है। कहा ही पुनः पति रूप में प्राप्त किया। काली जी ने जो कृष्ण जाता है कि इसी स्थान पर मैत्रेय जी ने विदुर को वर्ण त्यागा था उससे आगे चलकर कात्यायनी हुईं, श्रीमद्भागवत की कथा सुनायी थी और यहीं पर नारद जिन्होंने देवताओं के प्रयत्नों में बहुत बड़ी सहायता की जी ने सप्तर्षियों से श्रीमद्भागवत की सप्ताह कथा सुनी
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