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हंस-हयग्रीव
वर्णाभिधान में इसके अनेक नाम गिनाये गये हैं : हः शिवो गगनं हंसो नागलोकोऽम्बिका पतिः । नकूलीशो जगत्प्राणः प्राणेशः कपिलामलः ।। परमात्मात्मजो जीवो यवाकः शान्तिदोऽङ्गजः । शृंगो भयोऽरुणा स्थाणुः कूटकूपविरावणः ॥ लक्ष्मीर्मविहरः शम्भुः प्राणशक्ति ललाटजः । सृकोपवारणः शूली चैतन्यं पादपूरणः ॥ महालक्ष्मी परं शाम्भुः शाखीटः सोममण्डलः । बीजवर्णाभिधान में ह के दूसरे तान्त्रिक नामों का उल्लेख है। शुक्रश्चाथ हकारोंऽशः प्राणः सान्तः शिवो वियत् । अकुली नकुलीशश्च हंस: शून्यश्च हाकिनी ॥
अनन्तो नकुली जीवः परमात्मा ललाटजः । हंस-साहित्य में नीर-क्षीर विवेक का और धर्म-दर्शन में परमात्म तत्त्व का प्रतीक पक्षी है : योग और तन्त्र में इस प्रतीक का बहुत उपयोग हुआ है । हंस का ध्यान इस प्रकार बतलाया गया है।
आराधयामि मणिसन्निभमात्यलिङ्ग मायापुरीहृदयपङ्कजसन्निविष्टम् । श्रद्धानदीविमलचित्तजलावगाहं
नित्यसमाधिकुसुमेरपुनर्भवाय ।। राघवभट्ट धृत दक्षिणामूर्ति संहिता (सप्तम पटल) में हंसज्ञान और हंस माहात्म्य का वर्णन निम्नांकित है।
अजगाधारणं देवि कथयामि तवानघे । यस्य विज्ञानमात्र ण परं ब्रह्मव देशिकः ।। हंसः पदं परेशानि प्रत्यहं प्रजपेन्नरः । मोहरन्धं न जानाति मोक्षस्तस्य न विद्यते ॥ श्रीगुरोः कृपया देवि ज्ञायते जप्यते यदा। उच्छ्वासनिश्वासतया तदा बन्धक्षयो भवेत् ॥ उच्छ्वासे चैव विश्वासे हंस इति अक्षरद्वयम् । तस्मात् प्राणस्तु हंसात्मा आत्माकारेण संस्थितः ।।
नाभेरुच्छ्वासनिश्वासात हृदयाग्रे व्यवस्थितिः : हंसवत-पुरुष सूक्त के मंत्रों का उच्चारण करते हुए स्नान
करना चाहिए। उन्हीं से तर्पण तथा जप करना चाहिए। अष्टदल कमल के मध्य भाग में पुष्पादिक से भगवान् जनार्दन की, जिन्हें हंस भी कहा जाता है, पूजा करनी चाहिए। पूजन में ऋग्वेद के दशम मण्डल के ९० मंत्रों का उच्चारण किया जाय। पूजन के उपरान्त हवन
विहित है। तदनन्तर एक गौ का दान करना चाहिए। एक वर्षपर्यन्त इस व्रत का अनुष्ठान विहित है। इससे व्रती की सम्पूर्ण मनःकामनाएँ पूर्ण होती हैं । हत्या-हनन के लिए निषिद्ध प्राणियों को मारना । सामान्य रूप से जीव मात्र के मारने को हत्या कहा जाता है। हत्या पातक है। ब्रह्महत्या (मनुष्य वध) की गणना महापातकों में की गयी है।
ब्रह्महत्या सुरापानं स्तेयं गुर्वङ्गनागमः । ..
महान्ति पातकान्याहुः संसर्गश्चापि तैः सह ॥ [ ब्रह्म हत्या, सुरापान; स्तेय (चोरी), गुरु पत्नी से समागम-ये महापातक हैं और इनके करने वालों के साथ संसर्ग भी महापातक है । ] हनुमान्-वाल्मीकि रामायण के अनुसार एक वानर वीर । [वास्तव में वानर एक विशेष मानव जाति ही थी, जिसका धार्मिक लांछन (चिन्ह) वानर अथवा उसकी लाङ्गल थी। पुरा कथाओं में यही वानर (पशु) रूप में वर्णित है ।] भगवान राम को हनुमान् ऋष्यमूक पर्वत के पास मिले थे। हनुमान जी राम के अनन्य मित्र, सहायक और भक्त सिद्ध हुए। सीता का अन्वेषण करने के लिए ये लङ्का गए। राम के दौत्य का इन्होंने अद्भुत निर्वाह किया। राम-रावण युद्ध में भी इनका पराक्रम प्रसिद्ध है । रामावत वैष्णव धर्म के विकास के साथ हनुमान् का भी दैवीकरण हुआ। वे राम के पार्षद और पुनः पूज्य देव रूप में मान्य हो गये । धीरे धीरे हनुमत् अथवा मारुति पूजा का एक सम्प्रदाय ही बन गया है। 'हनुमत्कल्प' में इनके ध्यान और पूजा का विधान पाया जाता है। हमुमज्जयन्ती-चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को इस उत्सव का
आयोजन किया जाता है। हम्पी-दक्षिण भारत के प्राचीन विजयनगर राज्य की
राजधानी, अब हम्पी कही जाती है। इसके मध्य में विरूपाक्ष मन्दिर है । इसे लोग हम्पीश्वर कहते हैं। हयग्रीव-महाभारत के अनुसार मधु-कैटभ दैत्यों द्वारा हरण किए हुए वेदों का उद्धार करने के लिए विष्णु ने हयग्रीव अवतार धारण किया। इनके विग्रह का वर्णन इस
सुनासिकेन कायेन भूत्वा चन्द्रप्रभस्तदा । कृत्वा हयशिरं शुभं वेदानामालयं प्रभुः ।।
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