Book Title: Hindu Dharm Kosh
Author(s): Rajbali Pandey
Publisher: Utter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou

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Page 708
________________ ६९४ स्वधर्म-स्वभाव विभिन्न स्मृतियाँ विभिन्न युगों के लिए मान्य हैं : शिवरात्रौ च यो भुङ्क्ते श्रीरामनवमीदिने । अन्ये कृतयुगे धर्मास्त्रेतायां द्वापरेऽपरे । पितृकृत्यं देवकृत्यं स कृतघ्न इति स्मृतम् ।। अतो कलियुगे नृणां युगह्रासानुरूपतः ।। मनु. १.८५ भगवद्गीता में भी स्वधर्म का माहात्म्य बतलाया [ कृतयुग ( सतयुग ) में अन्य प्रकार के धर्म थे। गया है : त्रेता में अन्य । और द्वापर में अन्य ( उनसे भिन्न )! इस- श्रेयान् स्वधर्मो विगुणः परधर्मात् स्वनुष्ठितात् । लिए कलियुग में मनुष्यों के लिए अन्य धर्म है । ये धर्म स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ।। युगह्रास के अनुरूप हैं ।] [ गुणरहित भी अपना धर्म दूसरे के भलीभाँति अनु___ इस सिद्धान्त के अनुसार पराशर स्मृति ( १.२४ ) में ष्ठित धर्म से श्रेयस्कर है। अपने धर्म के पालन में मृत्यु मुख्य स्मृतियों को विभिन्न युगों में विभाजित कर दिया श्रेयस्कर है । दूसरे का धर्म भयावह है ।] गया है : स्वधा-(१) स्वादपूर्वक ग्रहण करने की क्रिया । देवताओं कृते तु मानवा धर्मास्त्रेतायां गौतमाः स्मृताः । के लिए हविर्दान मन्त्र के साथ 'स्वाहा' कहते है। स्वधा द्वापरे शङ्खलिखिताः कलौ पाराशराः स्मृताः ।। का प्रयोग पितरों के लिए ही किया जाता है। [कृतयुग में मानव धर्मशास्त्र प्रामाणिक है; त्रेता में (२) भागवत पुराण के अनुसार स्वधा दक्ष की कन्या गौतम धर्मशास्त्र; द्वापर में शङ्खलिखित और कलि में थी। वह पितरों की पत्नी थी। उसकी दो कन्याएँ हुईपाराशर धर्मशास्त्र ।] यमुना और धारिणी। ये दोनों तपस्विनी थीं। अतः इनकी सिद्धान्त में युगधर्म स्वीकार किया गया है । परन्तु मनु कोई सन्तान नहीं थी। ब्रह्मवैवर्त पुराण (प्रकृतिखण्ड, और याज्ञवल्क्य तथा उनकी टीकाएँ आज भी प्रामाणिक अध्याय ४१ ) के अनुसार स्वधा ब्रह्मा की मानसी कन्या मानी जाती है। ये टोकाएँ ही युगधर्म की दिशाप्रव और पितरों की पत्नी थी। इस पुराण में इसकी विस्तृत तंक हैं । कथा दी हुई है। स्वधर्म-अपने स्वभाव अर्थात् वर्ण और आश्रम के अनुसार स्वप्न-इसका एक अर्थ है निद्रा, दूसरा है निद्रा के सोये जिसका जो धर्म विहित है, वह उसका स्वधर्म है। उसके हुए व्यक्ति का विज्ञान । सुश्रुत (शरीर स्थान, अध्याय ४) पालन से ही कल्याण होता है। उसको छोड़कर अपने ने स्वप्न को निम्नांकित प्रकार से बतलाया है : स्वभाव के प्रतिकूल दूसरे के धर्म के पालन से अनिष्ट होता पूर्वदेहानुभूतांस्तु भूतात्मा स्वपतः प्रभुः । है । नृसिंह पुराण में कथन है : रजोयुक्तेन मनसा गृह्णात्यर्थान् शुभाशुभान् ॥ यो यस्य विहितो धर्मः स तज्जातिः प्रकीर्तितः । करणानान्तु वैकल्ये तमसाभिप्रवद्धिते । तस्मात् स्वधर्म कुर्वीत द्विजो नित्यमनापदि । अस्वपन्नपि भूतात्मा प्रसुप्त इव चोच्यते । चत्वारो वर्णा राजेन्द्र चरेयुश्चापि आश्रमाः । [जीवात्मा सोता हुआ रजोगुण से युक्त मन द्वारा ऋते स्वधर्म विपुलं न ते यान्ति परां गतिम् ॥ अपने शरीर से पूर्व अनुभूत शुभ तथा अशुभ पदार्थों को स्वधर्मेण यथा नृणां नरसिंहः प्रत्युष्यति । ग्रहण करता है । तमोगुण के बढ़ जाने पर न सोता हुआ भी जीवात्मा सोते हुए की भांति कहा गया है।] न तुष्यति तथान्येन वेदवाक्येन कर्मणा ।। __ब्रह्मवैवर्त पुराण ( श्रीकृष्ण जन्म खण्ड, सुस्वप्नदर्शन ब्रह्मवैवर्त पुराण ( प्रकृतिखण्ड, ५१.४५-४७ ) में स्वधर्मत्यागी को कृतघ्न कहा गया है और उसकी निन्दा की नामक ७७ अध्याय ) में शुभाशुभ स्वप्न-फल का विस्तृत वर्णन है। गयी है : स्वधर्म हन्ति यो विप्रः सन्ध्यात्रयविवर्जितः । स्वभाव-अपना भाव या मानसिक विचार । उज्ज्वल अतर्पणञ्च यत्स्नानं विष्णुनैवेद्यवञ्चितः ॥ नोलमणि में स्वभाव की परिभाषा निम्नांकित है : विष्णुमन्त्र-विष्णुपूजा-विष्णुभक्तिविहीनकः । बहिर्हत्वनपेक्षी तु स्वभावोऽथ प्रकीर्तितः । एकादशीविहीनश्च श्रीकृष्णजन्मवासरे ।। निसर्गश्च स्वरूपश्चेत्येषोऽपि भवति द्विधा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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