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पाने मैथुनसंसर्गे तथा मूत्रपुरीषयोः । स्पर्शनं यदि गच्छेतु शवोदयात्यः सह ॥ दिनमेकं चरेन्मूत्रे पुरीषे तु दिनद्वयम् । दिनत्रयं मैथुने स्यात् पाने स्यात्तच्चतुष्टयम् ॥
(दक्षस्मृति)
रजस्वला स्त्री के स्पर्श का तो तीन दिनों तक बहुत निषेध और प्रायश्चित्त है । देवकार्य के लिए रजस्वला पाँचवें दिन शुद्ध होती है ।
स्मार्त--स्मृत्तियों में विहित विधि-आचार आदि, अथवा इस व्यवस्था को मानने वाला । मनु (१.१०८) का कथन है :
आचारः परमो धर्मः श्रुत्युक्तः स्मार्त एव च । तस्मादस्मिन् सदा युक्तो नित्यं स्यादात्मवान् द्विजः ॥ [ आचार ही परम धर्म है । यह श्रुति में उक्त और स्मार्त (स्मृतियों के अनुकूल ) है । इसलिए आत्मवान् ( आत्मज्ञानी) द्विज वही होता है जो सदा इनके अनुसार आचरण करता है । ] वैष्णवों में 'स्मार्त' और 'भागवत' दो भेद आचार की दृष्टि से पाये जाते हैं । स्मार्त वैष्णव वे हैं जो परम्परागत स्मृति विहित धर्म का पालन करते हैं । भागवत वैष्णव परम्परा और विधि के स्थान पर भक्ति और आत्मसमर्पण पर बल देते हैं; अतः वे स्मार्त धर्म के प्रति उदासीन हैं ।
स्मृति - (१) अनुभूत विषय का ज्ञान अथवा अनुभव-संस्कार जन्य ज्ञान | यह बुद्धि का दूसरा भेद है । इसका पहला भेद अनुभूति है । 'उज्ज्वलनीलमणि' में भक्ति की दृष्टि से स्मृति का निरूपण निम्नांकित प्रकार से है :
अनुभूतप्रियादीनामर्थानां चिन्तनं स्मृतिः । तत्र कम्पाङ्गवैवर्ण्यष्वापनिःश्वसितादयः ॥ (२) धर्म के प्रमाणों अथवा स्रोतों में स्मृति की गणना है । मनुस्मृति (२.१२) के अनुसार
श्रुतिः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः । एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम् ॥
[ श्रुति (वेद), स्मृति, सदाचार और अपने आत्मा को प्रिय (आत्मतुष्टि, इन्द्रियतुष्टि नहीं ) ये चार प्रकार के साक्षात् धर्म के लक्षण कहे गये हैं । ] इन प्रमाणों में श्रुति अथवा वेद स्वतः प्रमाण और स्मृति आदि परतः प्रमाण हैं । परन्तु व्यावहारिक धर्म में स्मृतियों का बहुत
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स्मार्त-स्मृति
महत्त्व है, क्योंकि धर्म की नियमित व्यवस्था स्मृतियों में ही उपलब्ध है ।
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धर्मशास्त्र में स्मृति का मूल अर्थ केवल मन्वादि प्रणीत स्मृतियाँ ही नहीं । मूलतः इसमें वे सभी आचार-विचार सम्मिलित थे जो वेदविद् आचारवान् पुरुषों की स्मृति और आचरण में पाये जाते थे । इसमें सभी सूत्र -ग्रन्थ - श्रीत, गृह्य और धर्म - महाभारत, पुराण और मनु आदि स्मृतियाँ समाविष्ट हैं । गौतम धर्मसूत्र का कथन है, "वेदो धर्ममूलम् । तद्विदाञ्च स्मृतिशीले ।" [ वेद धर्म का मूल है और उसको जानने वाले पुरुषों की स्मृति तथा शील भी । ] मेधातिथि ने मनुस्मृति के 'स्मृतिशीले च तद्विदाम्' का भाष्य करते हुए लिखा है, " वेदार्थविदाम् इदं कर्तव्यम् इदन्न कर्तव्यम् इति यत् स्मरणं तदपि प्रमाणम् ।" परन्तु धीरे-धीरे विशाल धर्मशास्त्र की सामग्रियों
संग्रह अथवा संहिता का रूप धारण किया और वे स्मृतिग्रन्थों के रूप में प्रसिद्ध हुई और समय समय पर आगे भी स्मृतियाँ आवश्यकतानुसार बनती गयीं । प्राचीन सूत्रग्रन्थों और स्मृतियों में रचना की विद्या की दृष्टि से एक विशेष अन्तर है। सूत्र सभी अत्यन्त सूक्ष्म और सूत्रात्मक हैं। स्मृतियाँ, विष्णुस्मृति को छोड़कर सभी पद्यात्मक हैं और विवेचन तथा वर्णन की दृष्टि से विस्तृत |
स्मृतियों की संख्या बढ़ते-बढ़ते बहुत बड़ी हो गयी । इनकी सूची कई ग्रन्थों में पायी जाती है। अपरार्क ने अपने भाष्य ( पृ० ७ ) में गौतम धर्मसूत्र से एक सूत्र उद्धृत किया है जिसमें स्मृतिकारों की सूची है। ( इस समय मुद्रित गौतम धर्मसूत्र में यह नहीं मिलता है ।) यह सूची इस प्रकार है :
" स्मृतिधर्मशास्त्राणि तेषां प्रणेतारो मनु-विष्णु-दक्षाङ्गिरो अत्रि- बृहस्पति - उशन आपस्तम्बगौतम-संवर्त - आत्रेयकात्यायन - शङ्ख-लिखित पराशर व्यास- शातातप- प्रचेता-याज्ञ वल्क्यआदयः ॥ . '
दूसरी सूची याज्ञवल्क्य स्मृति (१.४-५ ) में पायी जाती है, जिसके अनुसार स्मृतियों की संख्या बीस है : वक्तारो धर्मशास्त्राणां मनु-विष्णु-यमोऽङ्गिरा । वसिष्ठ - दक्ष संवर्त - शातातप- पराशराः ॥ आपस्तम्बोशनो-व्यासाः कात्यायन - बृहस्पती । गौतमः शङ्खलिखितौ हारीतोऽत्रिरहं तथा ।।
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