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स्थाण्वीश्वर-स्नातक एतत् सन्निहितं प्रोक्तं सरः पुण्यप्रदं महत् ।
सष्टि काल में जिस प्रकार ब्रह्माजी की ब्रह्माण्डस्थालिङ्गस्य माहात्म्यं ब्रह्मन् मेऽवहितः शृणु ।। व्यापिनी शक्ति प्रलयान्धकार परिपूर्ण जीवों की सृष्टिअचेतनः सचेता वा अज्ञो वा प्राज्ञ एव वा। प्रकाश की ओर आकर्षित करती है, उसी प्रकार स्थिति लिङ्गस्य दर्शनादेव मुच्यते सर्वपातकः ॥ काल में भगवान् विष्णु की व्यापिका शक्ति प्रजापतिसृष्ट पुष्करादीनि तीर्थानि समुद्रचरणानि च ।
प्रजा की स्थिति और रक्षा करती है। इसी प्रकार भगवान् स्थाणतीर्थे समेष्यन्ति मध्यं प्राप्ते दिवाकरे ॥ रुद्र की व्यापक शक्ति सष्टिकाल से ही कार्यकारिणी तत्र स्थास्यति यो ब्रह्मन् माञ्च स्तोष्यति भक्तितः ।
होकर समस्त जड़-चेतनात्मक विश्व को महाप्रलय की तस्याहं सुलभो नित्यं भविष्यामि न संशयः ॥
ओर आकर्षित करती है। इन शक्तियों की व्यापकता के स्थाण्वीश्वर-कुरुभूमि में अम्बाला के निकट शंकरजी की कारण इनकी क्रिया एक सूक्ष्म अणु से लेकर देवतापर्यन्त प्रमुख मूर्ति । पहले यहाँ सरस्वती नदी बहती थी। संप्रति विस्तृत रहती है। जो आकर्षण शक्ति सृष्टि काल में यह स्थल थानेश्वर कहलाता है । बाणभट्ट ने हर्षचरित में प्रत्येक परमाणु के अन्दर द्वयणुक त्रसरेणु आदि उत्पन्न इसका वर्णन किया है। बामनपुराण (अध्याय ४२) में करती है यह सब ब्राह्मी व्यापक शक्ति की ही क्रियाइसका माहात्म्य पाया जाता है।
कारिता है। कोई भी जीव अपनी रक्षा के लिए यदि स्थालीपाक-यज्ञार्थ स्थाली (बटलोई) में पकाया हुआ चरु
किसी प्रकार की प्रतिक्रिया करता है तो यह वैष्णवी अथवा खीर । अष्टकाश्राद्ध में अथवा अन्य पशयागों में शक्ति की व्यापकता का परिणाम है; जिससे उसे रक्षा स्थालीपाक पशु का प्रतिनिधि होता था। गोभिल ने पश करने की प्रेरणा प्राप्त होती है। इसी प्रकार रोग शोकादि के विकल्प में स्थालीपाक का विधान किया है :
द्वारा जब जीव अपने इस पाञ्चभौतिक देह का परित्याग ___ "अपि वा स्थालीपाकं कुर्वीत" ।
करता है तो यह रौद्री शक्ति का परिणाम है जो सर्वत्र
व्याप्त रहने के कारण अपना कार्य करती रहती है । स्थितप्रज्ञ-जिस पुरुष की प्रज्ञा प्रतिष्ठित होती है उसे स्थितप्रज्ञ कहते हैं। भगवद्गीता (अध्याय २, श्लोक
इस प्रकार इन तीनों शक्तियों के अधिष्ठाता ब्रह्मा, ५५-५६) में स्थितप्रज्ञ की परिभाषा दी हुई है :
विष्णु और रुद्र देव हैं । अतएव स्पष्ट है कि सृष्टि की
स्थिति में मूल कारणभूत सत्वगुण विशिष्ट वैष्णवी शक्ति प्रजहाति यदा कामान् सर्वान पार्थ मनोगतान ।
कार्यनिरत रहकर संसार के स्थितिस्थापकत्व कार्य आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ।।
को पूर्ण करती है। दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः । वीतरागभयक्रोधः स्थितधीमुनिरुच्यते ॥ स्नात-स्नान किया हआ। धार्मिक कृत्य करने के पूर्व [हे पार्थ ! जब पुरुष सभी मनोगत भावों को त्याग स्नान करना आवश्यक है। प्रायः प्रत्येक धर्म में जल देता हैं और अपने आत्मा में अपने आप संतुष्ट रहता है
पवित्र करने वाला माना गया है । 'प्रायश्चित्त तत्त्व' में तब उसको स्थितप्रज्ञ कहते हैं । जिसका मन दुःखों में स्नान की धार्मिक अनिवार्यता इस प्रकार बतलायी अनुद्विग्न नहीं होता, जो सुखों में कामना से रहित होता गयो है : है, जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो चुके हैं उसको स्नातोऽधिकारी भवति दैवे पैत्र च कर्मणि । स्थितधी (स्थितप्रज्ञ) मुनि कहते हैं । ]
अस्नातस्य क्रिया सर्वा भवन्ति हि यतोऽफला ।। स्थितितत्त्व-प्रकृति के परिणामस्वरूप सष्टि होने के प्रातः समाचरेत्स्नानमतो नित्यमतन्द्रितः ।। अनन्तर उस सष्टि की एक काल सीमा। प्राणतत्त्व की [ मनुष्य दैव और पैत्र (पितर सम्बन्धी) कर्म में स्नान आकर्षण और विकर्षणात्मक दो शक्तियाँ । प्रथम रागात्मिका किये बिना सम्पूर्ण क्रियाएँ निष्फल होती है इसलिए आलस्य शक्ति है, जो कामशक्ति में परिणत होकर जीवसृष्टि का छोड़कर नित्य प्रातः स्नान विधिवत् करना चाहिए।] कारण बनती है। दूसरी शक्ति विकर्षण तमोगुणात्मिका स्नातक- जो वेदाध्ययन और ब्रह्मचर्य आश्रम समाप्त कर है. जिसकी सहायता से प्रलय स्थिति का निर्माण होता है। गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने की कामना से समावर्तन संस्कार
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