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स्मृति
धर्मशास्त्र के वक्ता १. मनु २. विष्णु ३. यम ४. अङ्गिरा ५. वसिष्ठ ६. दक्ष ७. संवर्त ८. शातातप ९. पराशर १०. आपस्तम्ब ११. उशना १२. व्यास १३. कात्यायन १४. बृहस्पति १५. गौतम १६. शङ्ख १७. लिखित १८. हारीत १९. अत्रि और २०. याज्ञवल्क्य । इस सूची में प्राचीन स्मृतिकार बौधायन का नाम नहीं है । पराशर ने अपने को छोड़कर उन्नीस धर्मशास्त्रकारों का नाम दिया है। किन्तु यह सूची याज्ञवल्क्य से भिन्न है। इसमें बृहस्पति, यम और व्यास के नाम नहीं है। नये नाम कश्यप, गार्ग्य और प्रचेता हैं। कुमारिल के तन्त्रवार्तिक ( पृ० १२५ ) में अठारह धर्मसंहिताओं का उल्लेख है। 'चतुर्विशतिमत' में चौबीस धर्मशास्त्रकार ऋषियों के मतों का संग्रह है। इसमें कात्यायन और लिखित को छोड़कर याज्ञवल्क्य द्वारा परिगणित सभी स्मृतिकार और इनके अतिरिक्त गार्ग्य, नारद, बौधायन, वत्स, विश्वामित्र और शङ्ख, ( सांख्यायन ) का समावेश है। 'ट्त्रिंशन्मत' ( मिताक्षरा में उद्धृत ) में छत्तीस स्मृतियों के मतों का संकलन है । पैठीनसि ( स्मृतिचन्द्रिका में उद्धृत ) ने भी स्मृतियों की संख्या छत्तीस बतलायी है। वृद्ध गौतम स्मृति (जीवानन्द संस्करण, भाग २ पृ० ४९८-९९) में सत्तावन स्मृतियों की सूची दी हुई है । यदि भाष्यकारों और निबन्धकारों द्वारा उद्धृत सभी धर्मशास्त्रकारों को जोड़ा जाय तो उनकी संख्या एक सौ इकतीस पहुँचती है ( कमलाकर भट्ट : निर्णय सिन्धु )। एक तो युगपरिवर्तन के कारण नयी स्मृतियाँ स्वयं बनती जाती थीं, दूसरे विभिन्न धर्मशास्त्रीय सम्प्रदाय वाले लघु, बृहत् और वृद्ध जोड़कर अपने साम्प्रदायिक धर्मशास्त्र का विकास करते जाते थे। इनके रचनाकाल के सम्बन्ध में बहुत मतभेद है। परन्तु इनको दूसरी शती ई० पू० और आठवीं शती इ० ५० के बीच रखा जा सकता है । (दे० काशी प्रसाद जायसवाल : मनु ऐण्ड याज्ञवल्क्य; म० पाण्डुरंग काणे : धर्मशास्त्र का इतिहास, जिल्द १)।
से वर्णन किया गया है। व्यवहार वर्ग के अन्तर्गत, राजधर्म, प्रशासन, विधि आदि विषयों का समावेश है । प्रायश्चित्त के अन्तर्गत विविध अपराधों और पापों से मुक्त होने के लिए अनेक तप, व्रत, दान आदि कर्मकाण्डों का विधान है। इनके अतिरिक्त धर्म, समाज, राज्य, व्यक्ति सम्बन्धी यथासंभव सभी विषयों का विवेचन स्मृतियों में पाया जाता है।
सभी स्मृतियों के प्रामाण्य का प्रश्न बड़ा पेचीदा है । पुरातनवादी स्मृति-भाष्यकारों और निबन्धकारों का मत है कि सभी स्मृतियाँ समान रूप से मान्य हैं, क्योंकि सभी ऋषिप्रणीत हैं और ऋषियों का मत कभी अमान्य नहीं हो सकता। यदि यह मत स्वीकार किया जाय तो बड़ी कठिनाई उत्पन्न हो जाएगी। देखने पर स्पष्ट है कि स्मृतियों में परस्पर बहुत मतभेद है और यदि सभी को छूट मिल जाय कि जो जिस स्मृति को पसन्द करे उसी का पालन करे तो समाज में अराजकता फैल जायेगी। इसलिए यह मत ग्राह्य नहीं हो सकता। दूसरा मत यह है कि मनुस्मृति सबसे अधिक प्रामाणिक है ; अतः जो स्मृति उसके अतुकल है वह मान्य और जो उसके प्रतिकूल है वह अमान्य है :
'मन्वर्थविपरीता तु या स्मृतिः सा न शस्यते'। तब प्रश्न यह उठता है कि वे सभी स्मृतियाँ व्यर्थ ही रची गयीं, जिनका मनु से मतभेद है। यह मानना कि अनेक परवर्ती स्मृतियों की रचना व्यर्थ हुई, बुद्धिसंगत नहीं जान पड़ता। तीसरा मत यह है कि जहाँ स्मतियों के वाक्यों में विरोध हो वहाँ बहुमत को मानना चाहिए: विरोधो यत्र वाक्यानां प्रामाण्यं तत्र भूयसाम् ।
(गोभिल, ३.१४९ ) तस्माद्विरोध धर्मस्य निश्चित्य गुरुलाधवम् । यतो भूयः ततो विद्वान् कुर्यात् विनिर्णयम् ।।
( स्मृतिचन्द्रिका, संस्कार काण्ड ) [ इसलिए धार्मिक वाक्यों के विरोध होने पर उनकी गुरुता ( गंभीरता ) और लघुता ( हल्कापन ) का विचार कर, जो अधिक गंभीर और वहसम्मत हो, विद्वान् को उसी के अनुसार निर्णय करना चाहिए । ]
चौथा मत है कि विभिन्न स्मृतियाँ विभिन्न युगों में उनकी आवश्यकता के अनुसार लिखी गयी थीं। अतः
स्मतियों में जिन विषयों का वर्णन है उनके तीन मुख्य वर्ग किए जा सकते हैं-१. आचार २. व्यवहार और ३. प्रायश्चित (दे० याज्ञवल्क्यस्मति )। आचार वर्ग में साधारण, विशेष, नित्य, नैमित्तिक, आपद्धर्म सभी का वर्णन है। विशेषकर वर्ण और आश्रम-धर्म का विस्तार
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