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स्कन्दषष्ठी स्तुति
३. ब्रह्मखण्ड के दो उपविभाग हैं - ( १ ) ब्रह्मास्य खण्ड और (२) ब्रह्मोत्तर खण्ड । इसके दूसरे उपविभाग में उज्जयिनी और महाकाल का वर्णन है।
४. काशीखण्ड में काशी की महिमा तथा शैवधर्म का वर्णन है ।
५. (क) रेवाखण्ड में नर्मदा की उत्पत्ति और इसके तटवर्ती तीर्थों का वर्णन है। इसी के अन्तर्गत सत्यनारायण व्रत कथा भी मानी जाती है ।
५. (ख) अवन्तीखण्ड में उज्जयिनी में स्थित विभिन्न शिवलिङ्गों का वर्णन है ।
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६. तापीखण्ड में तापीनदी के तटवर्ती तीर्थों का वर्णन है । इसके षष्ठ उपखण्ड का नाम नागरखण्ड है । इसके तीन परिच्छेद हैं- ( १ ) विश्वकर्मा उपाख्यान (२) विश्वकर्मा वंशाख्यान और (३) हाटकेश्वर माहात्म्य | तीसरे खण्ड में नागर ब्राह्मणों की उत्पत्ति का वर्णन है । ७. प्रभास खण्ड में प्रभास क्षेत्र का सविस्तर वर्णन है । 'सह्याद्रिखंड' आदि इसके प्रकीर्ण कतिपय अंश और भी प्रचलित हैं । स्कन्दषष्ठी - आश्विन शुक्ल पक्ष की पष्ठी को स्कन्दषष्ठी कहा जाता है। पञ्चमी के दिन उपवास रखते हुए षष्ठी के दिन कुमार ( स्वामी कार्तिकेय ) की पूजा की जाती है । 'निर्णयामृत' के अनुसार दक्षिणापथ में भाद्र शुक्ल षष्ठी को स्वामी कार्तिकेय की प्रतिमा का दर्शन कर लेने से ब्रह्महत्या जैसे महान् पातकों से मुक्ति मिल जाती है। तमिलनाडु में स्कन्दषष्ठी अत्यन्त महत्वपूर्ण है, जैसा कि सौर वृश्चिक मास ( कार्तिक शुक्ल ६) में पचाङ्गों में उल्लिखित रहता है तथा जो देवालयों एवं गृहों में समारोहपूर्वक मनाया जाता है। हेमाद्रि 'चतुर्वर्ग चिन्तामणि' (६२२) में ब्रह्मपुराण से कुछ श्लोक उ करते उद्धृत हुए बतलाते हैं कि अमावस्या के दिन अग्नि से स्कम्य की उत्पत्ति हुई थी तथा वे चैत्र शुक्ल ६ को प्रकट हुए थे और तत्पश्चात् उन्हें समस्त देवों का सेनाध्यक्ष बनाया गया और उन्होंने तारक नामक राक्षस का बध किया । अतएव दीपों को प्रज्ज्वलित करके वस्त्रों से साजसज्जाओं से ताम्रचूड ( क्रीडन सामग्री के रूप में ) इत्यादि से उनकी पूजा की जाय अथवा शुक्ल पक्ष की समस्त षष्ठियों को बच्चों के सुस्वास्थ्य की कामना वाले स्कन्द जी का पूजन होना चाहिए।
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स्कन्दषष्ठी व्रत कार्तिक शुक्ल षष्ठी को फलाहार करते हुए दक्षिणाभिमुख होकर स्वामी कार्तिकेय को अध्यं प्रदान करके उन्हें दही, घी, जल मन्त्र बोलकर समर्पित किये जाते हैं। व्रती को रात्रि के समय खाली भूमि पर भोजन रखकर उसे ग्रहण करना चाहिए। इससे उसे सफलता, समृद्धि, दीर्घायु, सुस्वास्थ्य तथा खोया हुआ राज्य प्राप्त होता है। व्रती को पष्ठी के दिन ( कृष्ण अथवा शुक्ल पक्ष की ) तैल सेवन नहीं करना चाहिए । पंचमी विद्वा स्कन्दपष्ठी को प्राथमिकता देनी चाहिए। 'गदाधर पद्धति' के कालसार भाग (८३-८४) के अनुसार चैत्र कृष्ण पक्ष में स्कन्दषष्ठी होनी चाहिए । स्तम्भन – अभिचार कर्म द्वारा किसी व्यक्ति के जटीकरण को स्तम्भन कहा जाता है । यह षट्कर्मान्तर्गत एक अभिचार कर्म है । फेत्कारिणीतन्त्र ( पञ्चम पटल ) में इसका वर्णन इस प्रकार हैं । "उलूककाकयोः पक्षौ गृहीत्वा मन्त्रवित्तमः । आलिरूप में शरावे निशायाञ्च साध्याक्षरसंपुटितम् ॥ मन्त्र स्थापितवनं ( कृतप्राणप्रतिष्ठम् ) सहस्रजप्तं चतुष्पथे निखनेत् । भविता जगताञ्ज नात्र सन्देहः ॥
स्तम्भनमेतदवश्यं कृत्वा प्रतिकृतिमथवा सम्यग विष्ठितपवनां वसनाधिष्ठितपवनां दग्धं कृत्वा निखनेत् मशानदेशेः
asyaण (पूर्वखण्ड १८६. स्तम्भन का विधान वर्णित है :
स्मशानाङ्गारच सनजाम् । हद्गतनाम्नीं समन्त्रललाटम् ।। सहस्रजतां तदुल्या बसनाम् । सपदि वास्तम्भः ॥ ११-१८) में अग्नि
माजूरस्य रसं गृह्य जलौका तत्र पेषयेत् । हस्तौ तु लेपयेत्तेन अग्निस्तम्भनमुत्तमम् ॥ शाल्मली रसमादाय खरमूत्रे निधाय तम् । अग्त्यागारे क्षिपेतेन अग्निस्तम्भनमुत्तमम् ॥ वायसीमुद गृह्य मण्डूकवसया सह । गुडिकां कारयेत्तेन ततोनी प्रक्षिपेवसी ॥ एवमेतत्प्रयोगेण अग्निस्तम्भनमुत्तमम् ॥ रक्तपाटलमूलंतु अवष्टब्धञ्च मूलकैः । दिव्यं स्तम्भयते क्षिप्रं पयं पिण्डं जलान्तकम् ॥ मुण्डीकवचाकुष्ठं मरीचं नागरं तथा । चवित्वा च इमं सद्यो जिह्वा ज्वलनं लिहेत् ॥ स्तुति - ( १ ) पूजापद्धति का एक अंग । इसका अर्थ है स्तव अथवा प्रशंसागान । इसमें देवताओं के गुणों का
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