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उल्लेख महाभारत में पाया जाता है। जब युधिष्ठिर कथा दी हुई है। इसका उल्लेख अलबीरूनी (१०३० ई०) प्रातः काल अपने शयन-कक्ष से निकले तो एक सहस्र भी करता है। अग्निपुराण (अध्याय ५१,७३,९९) तथा सूर्योपासक ब्राह्मण उनके सामने आये । इन ब्राह्मणों के गरुडपुराण ( अध्याय ७,१६,१७,३९ ) में सूर्यमूर्तियों आठ सहस्र अनुयायी थे (दे० महाभारत ७.८२.१४-१६)। तथा सूर्यपूजा का विवेचन पाया जाता है। इस सम्प्रदाय के धार्मिक सिद्धान्त महाभारत, रामायण, मध्ययुग में उत्तरोत्तर वैष्णव और शैव सम्प्रदायों के मार्कण्डेय पुराण आदि में पाये जाते हैं। इनके अनुसार विकास और वैष्णव सम्प्रदाय द्वारा आदित्य वर्ग के । सूर्य सनातन ब्रह्म, परमात्मा, स्वयम्भू, अज, सर्वात्मा, देवताओं को आत्मसात् करने की प्रवृत्ति के कारण धीरेसबका मूल कारण और संसार का उद्गम है । मोक्ष की धीरे सौर सम्प्रदाय का ह्रास होने लगा। फिर भी कृष्णकामना करने वाले तपस्वी उसकी उपासना करते हैं। मिश्र विरचित प्रबोधचन्द्रोदय नाटक में सौर सम्प्रदाय वह वेदस्वरूप और सर्वदेवमय है। वह ब्रह्मा, विष्णु का उल्लेख आदर के साथ किया गया है। इसका एतऔर शिव का भी प्रभु है । यह सम्पदाय दार्शनिक दृष्टि त्कालीन साहित्य उपलब्ध नहीं होता। ब्रह्मपुराण से अद्वैतवादी परम्परा का भक्तिमार्ग है।
(अध्याय २१-२८) में सौर धर्मविज्ञान के कुछ अंशों का __ आगे चलकर विष्णुपुराण और भविष्यपुराण में विवेचन तथा उत्कल-औड्र तथा कोण्डार्क में सूर्य मन्दिर सूर्यपूजा का जो रूप मिलता है, उसमें ईरान की मित्र- का माहात्म्य पाया जाता है। बंगला भाषा में सूर्यदेव पूजा (मिथ्रपूजा) का मिश्रण है । प्राचीन भारत और ईरान की स्तुतियाँ लिखी गयीं, जिनका प्रकाशन श्री दिनेशचन्द्र दोनों देशों में सूर्यपूजा प्रचलित थी। अतः यह साम्य सेन ने किया (एपिग्राफिया इंडिका, २.३३८)। गया और सम्मिश्रण स्वाभाविक था। फिर भी सौरसम्प्रदाय जिले के गोविन्दपुर ग्राम में प्राप्त अभिलेख (११३७ ई०) मूलतः भारतीय है, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं (दे० सूर्य के रचयिता कवि गङ्गाधर ने सूर्य की सुन्दर प्रशस्ति और (सूर्यपूजा)।
लिखी है। पाँचवीं शती से लेकर दसवीं-ग्यारहवीं शती तक सौर स्कन्द-शैव परिवार के एक देवता । ये शिव के पुत्र है। सम्प्रदाय, उत्तर भारत में विशेषकर, सशक्त रूप में स्कन्द कार्तिकेय का पर्याय है। 'स्कन्द' शब्द का अर्थ प्रचलित था। कई सूर्यमन्दिरों का निर्माण हुआ और है उछलकर चलने वाला, अथवा दैत्यों का शोषण करने कई राजवंश सूर्योपासक थे। सूर्यमन्दिरों के पुजारी वाला (स्कन्दते उत्प्लु गच्छति स्कन्दति शोषयति भोजक, मग और शाकद्वीपीय ब्राह्मण होते थे। इस देत्यान् वा)। स्कन्द का दूसरा प्रसिद्ध नाम कुमार है । सम्प्रदाय का एतत्कालीन सर्वप्रसिद्ध ग्रन्थ सौरसंहिता कालिदास के कुमारसंभव, महाभारत, वामन पुराण, था। इसमें साम्प्रदायिक कर्मकाण्ड का विस्तृत विधान कालिका पुराण आदि में स्कन्द के जन्म, कार्य, मूर्ति, है। इसकी हस्तलिपि नेपाल में पायी गयी थी जिसका सम्प्रदाय आदि का विवरण पाया जाता है। काल ९४१ ई० (१००८ वि०) है। परन्तु ग्रन्थ निश्चय स्कन्द देवसेना के नेता है। एक मत में वे सनातन ही पूर्ववर्ती है। दूसरा प्रसिद्ध ग्रंथ सूर्यशतक है। इसका ब्रह्मचारी रहने के कारण कुमार कहलाते हैं। परन्तु रचयिता बाण का समकालीन हर्ष का राजकवि मयूर आलंकारिक रूप से देवसेना ही उनकी पत्नी थी। देवथा। इसका काल सप्तम शती ई० का पूर्वार्द्ध था। सूर्य- सेना का नेतृत्व ही उनके प्रादुर्भाव का उद्देश्य था। शतक में सूर्य की जो कल्पना है वह पूर्ववर्ती कल्पना से वे कहीं-कहीं शिव के अवतार कहे गये हैं। उन्होंने मिलती जुलती है। सूर्य ही मोक्ष का उद्गम है, इस पर संसार को विताडित करनेवाले तारक का संहार किया। बहुत बल दिया गया है । बाण ने हर्षचरित के प्रारम्म मे स्कन्द की मूर्ति कुमारावस्था की ही निर्मित होती सूर्य की बन्दना की है । भक्तामरस्तोत्र के रचयिता जैन कवि है। उसके एक अथवा छ: शिर होते हैं और इसी क्रम मानतुङ्ग ने भो सूर्य की अतिरञ्जित स्तुति की है। इसी से दो अथवा बारह हाथ । स्कन्द का वस्त्र रक्त वर्ण का काल में उत्कल में साम्बपुराण नामक ग्रन्थ लिखा गया । होता है। उनके हाथों में धनुष-बाण, खड्ग, शक्ति, वज्र इसमें साम्ब और उनके द्वारा निमंत्रित मग ब्राह्मणों की और परशु होते हैं। उनका शक्ति (भाला) अमोघ होता
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