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सौभाग्य-सौरसम्प्रदाय
ना
सौदायिक कहते हैं। कात्यायन ने इसकी परिभाषा इस उल्लेख कर पूजन करना चाहिए । प्रतिमास विशेष प्रकार प्रकार दी है :
के पुष्य पूजा में प्रयुक्त हों। व्रती कम से कम एक फल ऊढया कन्यया वापि पत्युः पितगृहेऽथवा ।
का एक वर्ष के लिए त्याग करे। व्रत के अन्त में पर्यभर्तुसकाशात पित्रोर्वा लब्धं सौदायिकं स्मृतम् ।। कोपकरण तथा अन्य सज्जा की सामग्री, सुवर्ण की गौ इस धन के उपयोग में स्त्री स्वतन्त्र होती है :
तथा वृषभ का दान करना चाहिए। इससे सौभाग्य, सौदायिके सदा स्त्रीणां स्वातन्त्र्यं परिकीर्तितम् । स्वास्थ्य, सौन्दर्य तथा दीर्धायु प्राप्त होती है। विक्रये चैव दाने च यथेष्टं स्थावरेष्वपि ।
सौभाग्याष्टक-मत्स्यपुराण (६०.८-९) के अनुसार आठ सौभाग्य--एक व्रत का नाम । वाराहपुराण (सौभाग्यवत- वस्तुएँ ऐसी है, जिन्हें सौभाग्य सूचक माना जाता है :नामाध्याय) में इसका वर्णन मिलता है। यह वार्षिक व्रत गन्ना, पारद, निष्पाव (गेहूँ का बना खाद्य पदार्थ है। फाल्गुन शुक्ल तृतीया से इसका आरम्भ होता है। जिसमें दुग्ध तथा घृत प्रयुक्त किया गया हो), अजाजी उस दिन नक्त विधि से उपवास करके लक्ष्मीनारायण । (जीरा), धान्यक (धनियाँ), गौ का दधि, कुसुम्भ तथा अथवा उनके दूसरे स्वरूप गौरीशंकर का षोडशोपचार लवण । कृत्यरत्नाकर के अनुसार यह 'तवराजः (शकरपूजन करना चाहिए। लक्ष्मी-गौरी तथा हरि-हर में अभेद
कन्द) तथा व्रतराज के अनुसार 'तरुराजः' (खजूर का बुद्धि रखकर किसी भी युगल की श्रद्धापूर्वक आराधना वृक्ष) है। पद्मपुराण (५.२४-२५१) कुछ अन्तर से इनका करनी चाहिए। फिर “गम्भीराय सुभगाय देवदेवाय त्रिनेत्राय परिगणन करता है तथा कहता है : तरुराज कुसुम वाचस्पतये रुद्राय स्वाहा' मन्त्रवाक्यों से अंगपूजा करनी (कुस्तुम्बरु) तथा जीरक (जीरा)। सौभाग्याष्टक के लिए चाहिए और तिल, धृत, मधु से होम करना चाहिए। देखिए, भविष्योत्तर पुराण (२५.९)। तदनन्तर लवण और घत से रहित भने हए गेहँ भूमि में सौरसम्प्रदाय-सूर्यपूजा करने वाले सम्प्रदाय को सौर सम्प्रदाय रखकर खाने चाहिए। पूजन-व्रत की यह विधि चार कहते हैं। त्रिमूर्तियों-(१) ब्रह्मा (२) विष्णु और (३) मास तक चलती है। इसका पारण करने के बाद पुनः शिव-को आधार मानकर तीन मुख्य सम्प्रदायों, ब्राह्म, आषाढ शुक्ल तृतीया तथा कार्तिक शुक्ल तृतीया से
वैष्णव और शैव का विकास हुआ। पुनः उपसम्प्रदायों का चार-चार मास का यही क्रम चलता है। इनके मध्य विकास होने लगा। वैष्णव सम्प्रदाय का ही एक उपप्रथम जौ, पश्चात् साँवा अन्न खाया जाता है। माघ
सम्प्रदाय सौर सम्प्रदाय था। विष्णु और सूर (सूर्य) दोनों शुक्ल तृतीया को व्रत का उद्यापन होता है । इसके फल- ही आदित्य वर्ग के देवता है। सूर्योपासक सम्प्रदाय के स्वरूप सात जन्मों तक अखण्ड सौभाग्य मिलता है। रूप में कई स्थानों में इसका उल्लेख हुआ है। महासौभाग्यशयनव्रत-चैत्र शुक्ल तृतीया को गौरी तथा शिव
निर्वाण तन्त्र (११४०) में अन्य सम्प्रदायों के साथ इसकी की प्रतिमाओं का (प्रसिद्ध है कि चैत्र शुक्ल तृतीया को गणना हुई है : ही गौरी का शिवजी के साथ विवाह हुआ था) पञ्चगव्य
शाक्ताः शेवाः वैष्णवाश्च सौरा गाणपतास्तथा । तथा सुगन्धित जल से स्नान कराकर पूजन करना
विप्रा विप्रेतराश्चैव सर्वे ऽप्यत्राधिकारिणः । चाहिए। भगवती शिवा तथा भूतभावन शङ्कर की प्रति- इस सम्प्रदाय के गुरु मध्यम श्रेणी के माने जाते थे : माओं को चरणों से प्रारम्भ कर मस्तक तथा केशों को गौडाः शाल्वोद्भवाः सौरा मागधाः केरलास्तथा । प्रणामाञ्जलि देनी चाहिए। प्रतिमाओं के सम्मुख
कौशलाश्च दशाणश्चि गुरवः सप्त मध्यमाः ।। सौभाग्याष्टक स्थापित किया जाय। द्वितीय दिवस प्रातः इस सम्प्रदाय का उद्गम अत्यन्त प्राचीन है । ऋग्वेद सुवर्ण की प्रतिमाओं का दान कर दिया जाय । एक वर्ष- से प्रकट है कि उस युग में सूर्य की पूजा कई रूपों में पर्यन्त प्रति तृतीया को इसी विधि की आवृत्ति की होती थी। वह आज भी किसी न किसी रूप में वर्तमान जाय । प्रतिमास भिन्न-भिन्न प्रकार के नैवेद्य, भोज्यादि है। वैदिक प्रार्थनाओं में गायत्री (सावित्री) की प्रधानता पदार्थ, भिन्न-भिन्न प्रकार के मन्त्रों का उच्चारण तथा थी। आज भी नित्य सन्ध्या-वन्दन में उसका स्थान चैत्र से ही भिन्न-भिन्न प्रकार के देवीजी नामों का सुरक्षित है। परन्तु सम्प्रदाय के रूप में इसका प्रथम
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