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रामायण - रामावतार
शरीर है। वह सृष्टि-स्थिति-संहारकर्ता है; पर व्यूह, विभव, अन्तर्यामी और अर्चावतार भेद से वह पाँच प्रकार का है; शख, चक्र, गदा, पद्यधारी चतुर्भुज है श्री भू और लीला देवी सहित है; किरीटादि भूषणों से अलंकृत है । जगत् जड़ है और ब्रह्म का शरीर है । ब्रह्म ही जगत् का उपादान और निमित्त कारण है । वह जगत् रूप में प्रकट होकर भी विकाररहित है जगत सत् है, मिथ्या नहीं है। जीव भी ब्रह्म का शरीर है । ब्रह्म और जीव दोनों चेतन हैं । ब्रह्म विभु है, जीव अणु है । ब्रह्म पूर्ण है, जीव खण्डित है । प्रत्येक शरीर में जीव भिन्न है । भगवान् के दासत्व की प्राप्ति ही मुक्ति है। वैकुण्ठ में श्री, भू, लीला देवियों के साथ नारायण की सेवा करना ही परम पुरुषार्थ कहा जाता है मुक्ति विद्या अर्थात् उपासना द्वारा प्राप्त होती है । उपासनात्मक भक्ति ही मुक्ति का श्रेष्ठ साधन है। ध्यान और उपासना आदि मुक्ति के साधन हैं । सब प्रकार से भगवान् के शरण हो जाना प्रपत्ति का लक्षण है। नारायण विभु हैं, भूमा है, उनके चरणों में आत्मसमर्पण करने से जीव को शान्ति मिलती है। उनके प्रसन्न होने पर मुक्ति मिल सकती है। सब विषयों को त्याग कर उनकी ही शरण लेनी चाहिए। रामायण - संस्कृत का वाल्मीकि रामायण प्राचीन भारत के दो महाग्रन्थों में से एक है । महाभारत के वनपर्व में रामोपाख्यान का वर्णन करने के पहले कहा गया है कि 'राजन् ! पुराने इतिहास में जो कुछ घटना हुई है वह सुनो' ( अध्याय २७३, श्लोक ६ ) । इस स्थान पर पुरातन शब्द से विदित होता है कि महाभारत काल में रामायणी कथा पुरातनी कथा हो चुकी थी। इसी तरह द्रोणपर्व में लिखा है :
'अपि चार्य पुरा गीतः इलोको वाल्मीकिना भुवि ।' इन बातों से स्पष्ट है कि महाभारत की घटनाओं से सैकड़ों वर्ष पहले वाल्मीकि रामायण की रचना हो चुकी होगी । वाल्मीकि के ही कथनानुसार ( बालकाण्ड, सर्ग ४ ) उन्होंने रामायण में २४,००० श्लोक रचे जो पाँच सौ सर्गों में बँटे थे । आजकल इसके तीन प्रकार के पाठ प्रचलित हैं : औदीच्य, दाक्षिणात्य और प्राच्य (गौडीय) | इन तीनों में पाठभेद तो है ही पर किसी में न तो २४००० श्लोक हैं और न ५०० सर्ग । इसका साहित्यिक एवं धार्मिक महत्व सर्वाधिक है। यह पहला महाकाव्य है।
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इसीलिए इसे आदिकाव्य भी कहते हैं तथा इसके कवि को आदिकवि कहते हैं इसका ही अनुकरण परवर्ती संस्कृत कवियों ने किया । कालिदास का रघुवंश महाकाव्य एवं भवभूति का उत्तररामचरित नाटक इसी ग्रन्थ पर आधारित हैं । आज भी लाखों भारतवासी इसका पाठ करते और सुनते हैं । मध्यकाल में स्थानीय भाषाओं में इसके रूपान्तर आरम्भ हुए। सबसे महत्त्वपूर्ण 'रामचरित - मानस' तुलसीदासकृत हिन्दी में बना जो उत्तर भारत के निवासियों के लिए परम पवित्र ग्रन्थ है । रामलीला आज देश के कोने-कोने में प्रचलित है, जिसके द्वारा रामचरित्र के विशिष्ट रूप जनता के सामने रखे जाते हैं । भारतीय जनजीवन तथा विचारों पर जितना प्रभाव इस ग्रन्थ का है उतना शायद ही किसी ग्रन्थ का प्रभाव
पड़ा हो । राम के आदर्श चरित्र का इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि राम की पूजा विष्णु के अवतार के रूप में हुई, जिसके मुख्य प्रचारक १२वीं शताब्दी के रामानुज तथा १४वीं शताब्दी के रामानन्द थे ।
७०० वि० पूर्व से लेकर १३० वि० पू० तक के बीच विभिन्न विद्वानों ने रामायण का रचना काल माना है । ऊपर इसकी महाभारत की अपेक्षा प्राचीनता कही गयी है । सभी विद्वानों के प्रमाणों पर भली भांति विचार करने से रामायण को प्रायः चौथी शताब्दी वि० पू० के मध्य वर्तमान रूप में प्रस्तुत हुआ माना जा सकता है । किन्तु इसमें दूसरी शती वि० तक कुछ परिवर्तन तथा परिवर्तन होता रहा।
रामायणव्याख्या - यह रामानुज रचित एक ग्रन्थ है । रामाचपद्धति यह वैष्णवाचार्य रामानुज रचित एक ग्रन्थ है ।
रामावत सम्प्रदाय - स्वामी रामानन्द ने रामावत सम्प्रदाय की स्थापना की ये रामानुज स्वामी की श्रीवैष्णवपरम्परा में हुए थे । | परन्तु इन्होंने मध्ययुग की नयी परिस्थिति में अपने सम्प्रदाय को उदार बनाया। इन्होंने धर्म में जाति-पांति का बन्धन ढीला किया और इसका द्वार सभी के लिए खोल दिया । रामावत सम्प्रदाय में सवर्ण, वर्णेतर स्त्री, मुसलमान आदि सभी दीक्षित थे । इस सम्प्रदाय का मन्त्र था 'रां रामाय नमः ।' रामावतार - विष्णु के अवतारों के क्रम में रामावतार सप्तम माना जाता है । भगवान् का यह अवतार चिर काल से
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