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लकुल-लक्षेश्वरीव्रत
लश्चन्द्रः पूतना पृथ्वी माधवः शक्रवाचकः । लकुलोश पाशुपत-लकुलीश पाशुपतों के सिद्धान्त का वर्णन बलानुजः पिनाकीशो व्यापको मांससंज्ञकः ।। 'सर्वदर्शनसंग्रह' में सायणाचार्य ने किया है, जिसका सार खड्गी नागोऽमृतं देवी लवणं वारुणीपतिः । शिखा वाणी क्रिया माता भामिनी कामिनी प्रिया।
जीव मात्र ‘पशु' हैं। शिव 'पशुपति' है । भगवान् ज्वालिनी वेगिनी नादः प्रद्युम्नः शोषणो हरिः । - पशुपति ने बिना किसी कारण, साधन या सहायता के इस
विश्वात्ममन्त्री बली चेतो मेरुगिरिः कला रसः ।। संसार का निर्माण किया, अतः वे स्वतन्त्र कर्ता हैं । हमारे लकुल-वायुपुराण के एक प्रकरण में पाशुपतों के उप- कर्मों के भी मूल कर्ता परमेश्वर हैं। अतः पशुपति सब संप्रदाय लकुलीश का उल्लेख प्राप्त होता है । कल्पों की कर्मों के कारण है । दे० 'पाशुपत' । गणना के बाद युगों का वर्णन आता है, जो कल्प के लक्षणार्द्रा व्रत-भाद्र कृष्ण अष्टमी को आर्द्रा नक्षत्र होने विभाग है। युग कुल अट्ठाईस है तथा शिव प्रत्येक में पर यह व्रत करना चाहिए । सर्वप्रथम उमा तथा शिव की अवतार लेने की प्रतिज्ञा करते हैं। अन्तिम वक्तव्य यह प्रतिमाओं को पञ्चामृत से स्नान कराना चाहिए, तदनन्तर है कि जब कृष्ण वासुदेव का अवतार ग्रहण करेंगे तब
गन्धाक्षत-पुष्पादि से पूजन करना चाहिए। अर्घ्य, धूप, शिव अपनी योगशक्ति से कायारोहण स्थान पर अरक्षित गेहूँ के आटे के मत्स्य आकृति वाले ३२ प्रकार के खाद्य एक मृतक शरीर में प्रवेश करेंगे तथा लकुली नामक पदार्थ, जो पाँच प्रकार के रसों (दधि, दुग्ध, घृत, मधु, संन्यासी के रूप में दिखाई पड़ेंगे । कुशिक, गार्ग्य, मित्र तथा शर्करा) से युक्त हों तथा मोदक अर्पण करने चाहिए । कौरुष्य उनके शिष्य होंगे। ये पाशुपत योग का अभ्यास
तत्पश्चात् सुवर्ण, उपर्युक्त देवमूर्तियाँ तथा उत्तमोत्तम खाद्य अपने शरीर पर भस्म लगाकर करेंगे।
पदार्थ दान में देना चाहिए। इस व्रत से समस्त पापों का एकलिङ्गजी (उदयपुर) के समीप एक पुराने मन्दिर
नाश तो होता ही है, साथ ही सौन्दर्य, सम्पत्ति, दीर्घायु के अभिलेख से यह पता चलता है कि शिवावतार भड़ोंच तथा यश भी प्राप्त होता है। देश में हुआ तथा शिव एक लाठी (लकुल) अपने हाथ में लक्षनमस्कारव्रत-आश्विन शुक्ल एकादशी से विष्णु भगधारण करते थे। उस स्थान का नाम कायारोहण था। वान् को एक लाख नमस्कार अर्पण करना चाहिए । चित्रप्रशस्ति का मत है कि शिव का अवतार कारोहण पूर्णिमा तक व्रत की समाप्ति हो जानी चाहिए। इस (कायारोहण), लाट प्रदेश, में हुआ। वहाँ पाशुपत मत को अवसर पर भगवान् विष्णु का मन्त्र 'अतो देवाः' (ऋ० भली भाँति पालन करने के लिए शरीरी रूप धारण कर १. २२. १६-२१) उच्चारण करना चाहिए। चार शिष्य भी आविर्भूत हुए । वे थे कुशिक, गार्ग्य, कौरुष्य लक्षप्रदक्षिणावत-इस व्रत में भगवान् विष्णु की एक तथा मैत्रेय । भूतपूर्व बड़ौदा राज्य का 'करजण' वह स्थान लाख प्रदक्षिणाएँ करने का विधान है। चातुर्मास्य के कहलाता है । यहाँ लकुलीश का मन्दिर भी वर्तमान है। प्रारम्भ के समय इसे आरम्भ कर कार्तिक की पौर्णमासी लकुलीश-लकुलीश सिद्धान्त पाशुपतों का ही एक विशिष्ट को समाप्त कर देना चाहिए ।
मत है । इसका उदय गुजरात में हुआ। वहाँ इसके दार्श- लक्षवतिव्रत-कार्तिक, वैशाख अथवा माघ में इस व्रत का निक साहित्य का सातवीं शताब्दी के प्रारम्भ के पहले ही आरम्भ होता है । सर्वोत्तम मास वैशाख है। तीन मास के विकास हो चुका था, इसलिए उन लोगों ने शैव आगमों अन्त में पौर्णमासी को यह व्रत समाप्त होना चाहिए। की नयी शिक्षाओं को नहीं माना । यह मत छठी से नवीं इस अवसर पर ब्रह्मा तथा सावित्री, विष्णु तथा लक्ष्मी, शताब्दी के बीच मैसूर और राजस्थान में भी फैल चुका शिव एवं उमा की प्रतिमाओं के सम्मुख प्रतिदिन सहस्र था । शिव के अवतारों की सूची जो वायुपुराण से लिङ्ग बत्तियों वाले दीपक प्रज्वलित करने चाहिए। और कूर्म पुराण में उद्धृत है, लकुलीश का उल्लेख लक्षहोम-यह शान्तिव्रत है, इसमें किसी भी इष्ट देव के करती है। वहाँ लकुलीश की मूर्ति का भी उल्लेख है, जो लिए एक लाख आहुति देने का विधान है। गुजरात के झरपतन नामक स्थान में है। यह सातवीं लक्षेश्वरीव्रत-उसी प्रकार से यह व्रत होता है जैसे शताब्दी की बनी हुई है।
'कोटेश्वरीव्रत' पहले बतलाया गया है।
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