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वैशेषिक-वैश्य
भी अदृश्य तथा आकृतिहीन होता है। ये परमाणु चार वैशेषिक-न्याय-ग्यारहवीं शताब्दी के बाद न्याय तथा श्रेणियों में गंध, स्वाद, स्पर्श तथा ऊष्मा गुणों के कारण वैशेषिक वस्तुतः एक में मिल गये। दोनों का संयोग विभक्त किये गये हैं, जो क्रमशः पृथ्वी, जल, वायु तथा शिवादित्य के 'सप्तपदार्थनिरूपण' (११वीं शताब्दा) से अग्नि के गुण हैं । दो परमाणुओं से एक द्वयणुक' तथा तीन आरम्भ होता है। गंगेश उपाध्याय की 'न्यायचिन्तामणि' द्वयणुकों से एक व्यणुक ( त्रसरेणु ) बनता है। सबसे में इसी सम्मिलन के आदर्श का पालन हुआ है। यह छोटी इकाई यही है जो रूपवान् होती है तथा इसे पदार्थ १२वीं शताब्दी का बहुप्रयुक्त ग्रन्थ है। तेरहवीं शती के की संज्ञा दी गयी है।
केशव के 'तर्कभाषा' तथा १५वीं शती के शङ्कर मिश्र के
'वैशेषिकसूत्रोपस्कार' में इसी संयोग की चेष्टा हुई है। पाँचवीं नित्य सत्ता आकाश है जो अदृश्य परमाणुओं को मूर्त पदार्थ में बदलने का माध्यम है। छठा सत्य काल १६०० ई० के लगभग न्याय-वैशेषिक की संयुक्त है । यह वह शक्ति है जो सभी कार्य तथा परिवर्तन करती शाखा से सम्बन्धित अन्नम् भट्ट, विश्वनाथ पश्चानन, है तथा दो समयों के अन्तर का आधार उपस्थित करती जगदीश तथा लौगाक्षिभास्कर नामक आचार्य हुए। है । सातवां सत्य दिक् या दिशा है। यह काल को बङ्गाल में नव्य न्याय की प्रणाली का प्रारम्भ वासुदेव संतुलित करती है। आठवाँ सत्य अगणित आत्माओं का सार्वभौम के द्वारा हुआ जो नवद्वीप (नदिया) में अध्यापक है। प्रत्येक आत्मा नित्य तथा विभु है। नवाँ सत्य (१४७०-१४८० ई०) थे । इनकी बौद्धिक स्वतंत्रता इनके है 'मनस्' जिसके माध्यम से आत्मा ज्ञानेन्द्रियों के शिष्य रघुनाथ शिरोमणि ने घोषित करायी। इस प्रकार स्पर्श में आता है। परमाणुओं की तरह प्रत्येक मन १७वीं शती के अन्त तक तर्क शास्त्र का उत्तराधिकार नित्य तथा रूपहीन है। कर्ममीमांसा तथा सांख्य की चलता आया । तरह प्रारम्भिक वैशेषिक भी देवमण्डल के अस्तित्व वैशेषिकसूत्रभाष्य-वैशेषिक सूत्र पर लिखा हुआ यह को स्वीकार करता है । सूत्र में छः पदार्थों के नाम हैं :
प्रथम भाष्य है, जिसे प्रशस्तपाद (६५० वि० के लगभग) द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष तथा समवाय । इन
ने प्रस्तुत किया। इस भाष्य के अध्ययन के बिना वैशेषिक छहों का ज्ञान मोक्षदाता है। ६०० ई० के लगभग
सूत्रों को समझना असम्भव है। प्रशस्तपाद नामक आचार्य ने वैशेषिक सूत्रों पर भाष्य
वैशेषिकसूत्रोपस्कार---शङ्कर मिश्र द्वारा विरचित यह ग्रन्थ लिखा । ह्वेनसाँग ने 'दश पदार्थ' का अनुवाद किया,
वैशेषिक सूत्र का उपभाष्य है। इसमें न्याय तथा वैशेषिक जिसे ज्ञानचक्र द्वारा चीनी भाषा में अनुवादित कहा।
को एक में मिलाने का प्रयास हुआ । गया है।
वैश्य-चार वर्णों में तीसरा स्थान वैश्य का है। इसका दसवीं शताब्दी के मध्य में दो उल्लेखनीय दार्शनिक प्रथम उल्लेख पुरुषसूक्त में हुआ है (ऋ० १०.९.१२) । वैशेषिक दर्शन के व्याख्याकार हुए। उनमें से प्रथम थे इसके पश्चात् अथर्ववेद आदि में इसका प्रयोग बहुलता से उदयन जो बहुत ही शक्तिशाली एवं स्पष्ट प्रतिभा के किया गया है। ऋग्वेद में कहा गया है कि वैश्य की दार्शनिक थे। इन्होंने प्रशस्तपाद भाष्य के समर्थन में
उत्पत्ति विराट् पुरुष की जंघाओं से हुई। इस रूपक से किरणावली नामक ग्रन्थ रचा। इनका दूसरा ग्रन्थ है
ज्ञात होता है कि वैश्य सामाजिक जीवन का स्तम्भ माना लक्षणावली। दूसरे ग्रन्थकार थे श्रीधर, जो दक्षिण- जाता था। वैदिक साहित्य में वैश्य की स्थिति का वर्णन पश्चिम वंग के निवासी थे। इन्होंने प्रशस्तपाद के भाष्य
ऐतरेय ब्राह्मण (७.२९) करता है; वैश्य 'अन्यस्य बलिकृत्' की न्यायकन्दली नामक व्याख्या रची। यह ९९१ ई०
(दूसरे को बलि देने वाला ), 'अन्यस्याद्य:' (दूसरे का के लगभग रची गयी। इसके बाद न्याय-वैशेषिक दोनों
उपजीव्य) है। उस पर राजा द्वारा कर लगाया जाता संयुक्त दर्शन एकत्र हो गये । (आगे का विकास 'वैशेषिक- था। वैश्य साधारणतः कृषक, पशुपालक एवं व्यवसायन्याय' शब्द की व्याख्या में देखें।)
वाणिज्य कर्ता होते थे। तैत्तिरीय संहिता के अनुसार वैशेषिक दर्शन-दे० 'वैशेषिक' ।
वंश्यों की महत्त्वाकांक्षा ग्रामणी बनने को होती थी।
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