________________
सप्त गोदावर-सभा
अध्याय २२) में सपिण्डीकरण का वर्णन इस प्रकार
तत्राद्य चरिताध्याये श्लोका अशीतिरुत्तमाः । मिलता है।
अथ मध्ये चरित्र तु पञ्चाष्टकसूसंख्यकाः ।। सपिण्डीकरणं प्रोक्तं पूर्व संवत्सरे पुनः ।
त्रयोऽध्यायाश्चतु सप्तचतुर्वेदस्ववेदकाः । कुर्याच्चत्वारि पात्राणि प्रेतादीनां द्विजोत्तमाः ।।
अथोत्तरचरित्र तु षट्पडग्निश्लोकभाक् ॥ प्रेतार्थं पितृपात्रषु पात्रमासे चये ततः ।
अग्नीसोमाध्यायवती गीता सप्तशती स्मृता । ये समाना इति द्वाभ्यां पिण्डानप्येवमेव हि ।।
सप्तसागर अथवा सप्तसमुद्र व्रत-चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से इस सपिण्डीकरणश्राद्धं देवपूर्व विधीयते ।
का आरम्भ होता है। सुप्रभा, काञ्चनाक्षी, विशाला पितृनावाहयेदयत्र पृथक् पिण्डांश्च निद्दिशेत् ।।
मानसोद्भवा, मेघनादा, सुवेणु, तथा विमलोदका धाराओं ये सपिण्डीकृताः प्रेता न तेषां स्यात् पृथक क्रिया ।
का क्रमशः सात दिनपयन्त पूजन होना चाहिए। सात यस्तु कुर्यात् पृथक् पिण्डान् पितृहा सोऽपि जायते ।।
सागरों के नामों से दही का हवन हो तथा ब्राह्मणों को सप्त गोदावर-गोदावरी-समुद्र संगम का एक तीर्थ । यह
दधियुक्त भोजन कराया जाए। व्रती स्वयं रात्रि को आन्ध्र देश के समुद्र तट पर है । महाभारत (३.८५.४४)
घृत मिश्रित चावल खाए । एक वर्षपर्यन्त इस व्रत का में इसका माहात्म्य वणित है ।
आचरण विहित है। किसी पवित्र स्थान पर किसी भी सप्तपदी-विवाह संस्कार का अनिवार्य और मुख्य अङ्ग।
ब्राह्मण को सात वस्त्रों का दान करना चाहिए। इस व्रत इसमें वर उत्तर दिशा में वधू को सात मन्त्रों द्वारा सप्त
का नाम सारस्वत व्रत भी है। प्रतीत होता है कि उपर्युक्त मण्डलिकाओं में सात पदों तक साथ ले जाता है । वधू भी
गिनाए हुए सात नाम या तो सरस्वती नदी के है अथवा दक्षिण पाद उठाकर पुनः वामपाद मण्डलिकाओं में रखती
उसकी सहायक नदियों के । अतएव इस व्रत का नाम है। इसके बिना विवाह कर्म पक्का नहीं होता।
'सारस्वत व्रत' अथवा 'सप्तसागर व्रत' । उचित ही प्रतीत अग्नि की चार परिक्रमाओं (फेरा) से यह कृत्य अलग है।
होता है। इस सात नदियों के लिए तथा सारस्वत व्रत की सप्तर्षि-मूल सात ऋषियों का समूह । इनके नाम इस
सार्थकता के लिए दे० विष्णुधर्म० ३.१६४.१-७ प्रकार है-मरीचि, अत्रि, अङ्गिरा, पुलस्त्य, पुलह, ऋतु और वसिष्ठ । प्रत्येक मन्वन्तर में सप्तर्षि भिन्न भिन्न सप्तसुन्दर व्रत-इस व्रत में पार्वती का सात नामों से होते हैं । इनका वृत्तान्त 'ऋषि' शब्द के अन्तर्गत देखिए।
पूजन करना चाहिए। वे नाम है---कुमुदा, माधवी, गौरी सप्तर्षि मण्डल-सप्तर्षि मण्डल आकाश में सब के उत्तर
भवानी, पार्वती, उमा तथा अम्बिका । सात दिनपर्यन्त सात दिखाई पड़ता है। ब्रह्मा के द्वारा विनियुक्त सात ऋषि
कन्याओं को (जो लगभग आठ वर्ष की अवस्था की हों) इसमें बसते हैं। ये ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं। ब्रह्मवादियों
भोजन कराना चाहिए। प्रतिदिन सात नामों में से एक के द्वारा ये सात ब्राह्मण कहे जाते हैं । इनकी पत्नियाँ हैं :
नाम उच्चारण करते हुए प्रार्थना की जाय जैसे 'कुमुदा मरीचि की संभूति, अत्रि की अनसूया, पुलह की क्षमा,
देवि प्रसीद' । उसी प्रकार क्रमशः अन्य नामों का ६ दिनों पुलस्य की प्रीति, ऋतु की सन्नति, अंगिरा की लज्जा तथा
तक प्रयोग किया जाना चाहिए। सातवें दिन समस्त वशिष्ट की अरुन्धती, जो लोकमाता कहलाती है । त्रिकाल ।
नामों का उच्चारण करके पार्वती का पूजनादि करने के सन्ध्या की उपासना करने वाले और गायत्री के जप में
लिए गन्धाक्षतादि के साथ साथ ताम्बूल, सिन्दूर तथा तत्पर ब्रह्मवादी ब्राह्मण सप्तर्षि लोक में निवास करते हैं । नारियल अर्पित किया जाय । पूजन के उपरान्त प्रत्येक (दे० पद्मपुराण, स्वर्ग खण्ड, अध्याय ११)
कन्या को एक दर्पण प्रदान किया जाय । इस व्रत के सप्तशती-सात सौ श्लोकों का समूह देवीमाहात्म्य । इसको
आचरण से सौभाग्य और सौन्दर्य की उपलब्धि होती है चण्डीपाठ भी कहते हैं । अर्गलास्तोत्र में कथन है ।
तथा पाप क्षीण होते हैं। अर्गलं कीलकं चादी पठित्वा कवचं ततः । सभा-जहाँ साथ साथ लोग शोभायमान होते है वह
जपेत् सप्तशती चण्डी क्रम एष शिवोदितः ।। स्थान (सह यान्ति शोभन्ते यत्रेति ) । मनु ने इसका नागोजी भट्ट के अनुसार :
लक्षण (न्याय सभा के लिए) इस प्रकार दिया है
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org