Book Title: Hindu Dharm Kosh
Author(s): Rajbali Pandey
Publisher: Utter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou

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Page 692
________________ ६७८ मूर्तियों की विशेषता है कमलस्थ नंगा पाँव धोती और पूर्णतः अभिव्यक्त (खुला) शरीर । सूर्यनक्तव्रत- व्रतकर्ता को रविवार के दिन नक्त विधि से आहार आदि करना चाहिए। रविवार को हस्त नक्षत्र पड़े तो उस दिन एकभक्त तथा उसके बाद वाले रविवारों को नक्त विधि से आहार करना चाहिए। सूर्यास्त के समय रक्त चन्दन के प्रलेप से द्वादश दलीय कमल बनाकर पूर्व से आठों दिशाओं में भिन्न-भिन्न नामों से (जैसे सूर्य, दिवाकर आदि) न्यास किया जाय। मण्डल के पूर्व में सूर्य के अश्वों का न्यास किया जाय। ऋग्वेद तथा साम वेद के प्रथम मंत्रों तथा तैत्तिरीय संहिता के प्रथम चार शब्दों का उच्चारण करते हुए अर्थ दान करना चाहिए। एक वर्षपर्यन्त अथवा द्वादश वर्षपर्यन्त इस व्रत का आचरण होता है । इससे व्रती समस्त रोगों से मुक्त होकर सुख समृद्धि तथा सन्धानादि का सुख भोगकर सूर्य लोक प्राप्त कर लेता है । सूर्यपूजाप्रशंसा-दे० विष्णु धर्म०, ३.१८१.१-७, जिसमें लिखा है कि वर्ष की समस्त सप्तमी तिथियों को सूर्य का पूजन करने से क्या पुण्य अथवा फल मिलता है; अथवा वर्ष भर प्रति रविवार को नक्त विधि से आहारादि करने से अथवा सूर्योदय के समय सर्वदा सूर्योपासना करने से क्या पुण्य प्राप्त होता है। भविष्य पुराण (१-६८) के श्लोक ८-१४ में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि सूर्योपासना में किन-किन पुष्पों की आवश्यकता पड़ती है तथा उनका प्रयोग करने से क्या पुण्य प्राप्त होते हैं। सूर्यरथयात्रा माहात्म्य भविष्यपुराण (१.५८ ) के अनुसार सूर्य का रथोत्सव माघ मास में आयोजित किया जाता है । यदि प्रति वर्ष इसका आयोजन कठिन हो तो बारहवें वर्ष जिस दिन प्रथम बार हुआ था, उसी दिन आयोजन किया जाना चाहिए। उत्सव के नैरन्तर्य में थोड़े-थोड़े व्यवधानों के बाद इसका आयोजन नहीं किया जाना चाहिए। आषाढ़, कार्तिक तथा माघ मास की पूर्णिमाएँ इसके लिए पवित्रतम है। यदि रविवार को षष्ठी या सप्तमी पड़े तो भी रथयात्रा का उत्सव आयो जित हो सकता है । सृष्टि - संसार की उत्पत्ति या निर्मिति अथवा सर्जना । जो ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास करते हैं उनके अनुसार ईश्वर ने अपनी ही योगमाया से अथवा प्रकृतिरूपी उपा Jain Education International सूक्तष्टतव दान कारण से इस जगत् का निर्माण किया श्रीभागवत पुराण में सृष्टि का वर्णन इस प्रकार है : सृष्टि के पूर्व मन, चक्षु आदि इन्द्रियों से अगोचर भगवान् एकमात्र थे । जब उन्होंने स्वेच्छा से देखने की कामना की तो कोई दृश्य नहीं दिखायी पड़ा । तब उन्होंने त्रिगुणमयी माया का प्रकाश किया। तब भगवान् ने अपने अंश पुरुषरूप करके उस माया में अपने वीर्य चैतन्य का आधान किया। उससे तीन प्रकार का अहङ्कार उत्पन्न हुआ | उनमें से सात्त्विक अहङ्कार से मन इन्द्रिय के अधिष्ठातृदेवता उत्पन्न हुए राजस अहङ्कार से दस इन्द्रियों की उत्पत्ति हुई। तामस अहङ्कार से पञ्चभूत हुए। उनमें पञ्चगुण उत्पन्त हुए। इस प्रकार प्रकृत्यादि इन चौबीस तत्त्वों से ब्रह्माण्डका निर्माण कर भगवान् ने एक अंश से उसमें प्रवेश कर गर्भोदक संज्ञक जल उत्पन्न किया। उस जल के बीच में योगनिद्रा से सहस्रयुगकाल तक स्थित रहे । उसके अन्त में उठकर अपने अंश से ब्रह्मा होकर सब की सृष्टि कर और (विष्णुरूप से) नानावतारों को धारणकर जगत् का पालन करते हैं । कल्पान्त में रुद्ररूप से जगत् का संहार करते हैं । विष्णु पुराण (१.५.२७-६५ ) में विष्णु द्वारा सृष्टि का विस्तृत वर्णन पाया जाता है। ऋग्वेद के पुरुष सूक्त में विराट् ( विश्व पुरुष ) से सम्पूर्ण विश्व की उत्पत्ति का रूपकात्मक वर्णन है । न्याय दर्शन के अनुसार सृष्टि के के तीन कारण हैं- ( १ ) उपादान (२) निमित्त और (३) सहकारी प्रकृति सृष्टि का उपादान कारण और ईश्वर निमित्त कारण है। जिस प्रकार कुम्भकार मृत्तिकाउपादान से अनेक प्रकार के मृद्भाण्डों का निर्माण करता है। उसी प्रकार ईश्वर प्रकृति के उपादान से बहुविधि जगत् की सृष्टि करता है । सृष्टितस्व -- भारतीय संस्कृति के मौलिक तत्त्वों में आध्यात्मिक चिन्तन की बड़ी विशेषता है। दर्शन शास्त्रीय सिद्धान्त के अनुसार बिना तत्व-ज्ञान प्राप्त किये जीव कल्याण का भागी नहीं हो सकता । अतः मानव अध्यात्म की ओर प्रवृत्त होता है। इसके अनन्तर उसे जिज्ञासा होती है कि दृश्य जगत् की उत्पत्ति कहाँ से होती है और यह किस जगह विलीन हो जाता है। इस दिशा में हमारे दर्शन शास्त्र अधिक प्रकाश डालते हैं, यथा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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