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सूतक-सूर्य
रथ संचालन बतलाया गया है (वही, १०.४७) । वेदव्यास ऋषि ने रोमहर्षण नामक अपने सूत शिष्य को समस्त पुराण और महाभारत आदि पढ़ाये थे। सूतजी नैमि- षारण्य में ऋषियों को ये पुराण कथाएँ सुनाया करते थे । सूतक-परिवार में किसी शिशु के जन्म से उत्पन्न अशौच । वृद्धमनु के अनुसार यह अशौच दस दिनों तक रहता है। सूतिका-नव प्रसूता स्त्री । इसका संस्पर्श दूषित बतलाया गया है। संस्पर्श होने पर प्रायश्चित्त से शद्धि होती है। 'प्रायश्चित्ततत्त्व' में कथन है :
चाण्डालान्नं भूमिपान्नमजजीविश्वजीविनाम् ।
शौण्डिकान्नं सुतिकान्नं भुक्त्वा मासं व्रती भवेत् ।। सूत्र-(१) अत्यन्त सूक्ष्म शैली में लिखे हुए शास्त्रादिसूचना ग्रन्थ । सूत्र का लक्षण इस प्रकार है : स्वल्पाक्षरमसंदिग्धं सारवद् विश्वतो मुखम् । अस्तोभनवद्यञ्च सूत्र सूत्रविदो विदुः ।। [ अत्यन्त थोड़े अक्षर वाले, सारगर्भित, व्यापक, अस्तोभ (स्तोभ-सामगान के तालस्वर) तथा अनवद्य (वाक्य अथवा वाक्यांश सूत्र) कहा जाता है ।]
वेदाङ्ग-शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष सूत्र शैली में ही लिखे गये हैं। षड्दर्शन भी सूत्र शैली में प्रणीत हैं।
(२) ब्रह्मसूत्र (यज्ञोपवीत) को भी सूत्र कहते हैं। सूना-प्राणियों का वधस्थान । गृहस्थ के घर में पाँच सूना होती हैं : पञ्चसूना गृहस्थस्य चुल्ली पेषण्युपस्करः । कण्डनी चोदकुम्भश्च वध्यते याश्च वाहयन् ॥
[चूल्हा, चक्की, सामग्री, ओखली और जलाधार ये पाँच सूना के स्थान है जहाँ गहस्थ के द्वारा हिंसा होती रहती है'।] इसके पापनाशन का उपाय मनु ने इस प्रकार बतलाया है : पञ्चैतान् यो महायज्ञान् न हापयति शक्तितः । स गृहेऽपि वसन्नित्यं सूनादोषैर्न लिप्यते ।।
[पंच महायज्ञ ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, भूतयज्ञ और मनुष्ययज्ञ) नित्य करने वाला गृहस्थ पाँच सूना (हिंसा) दोषों से मुक्त रहता है।]
सूर्य-देवमण्डल का एक प्रधान देवता । यह बारह आदित्यों (अदिति के पुत्रों) में से एक है। ऋग्वेद के बारह सूक्तों में सूर्य की स्तुति की गयी है । यह आदित्य वर्ग के देवताओं में सबसे अधिक महत्त्वशाली और दृश्य है। इसका देवत्व सबसे अधिक उस समय विकसित होता है जब यह आकाश के मध्यमें चढ़ जाता है। यह देवताओं का मुख कहा गया है। (ऋ० १.११५.१)। इसको देवताओं का विशेषकर मित्र और वरुण का चक्षु भी कहा है (ऋ०६.५१.१) । चक्षु और सूर्य का धनिष्ठ सम्बन्ध है। वह विराट् पुरुष का चक्षु स्थानीय है। कई संस्कारों में सूर्य के दर्शन करने की व्यवस्था है। वह मनुष्यों के शुभ और अशुभ कर्मों को देखता, मनुष्यों को निर्दोषित घोषित करता और उन्हें निष्पाप भी बनाता है। स्वास्थ्य से सूर्य का स्वाभाविक सम्बन्ध है। वह रोगों को दूर भगाता है(ऋ०१.५०.११.१२)
वेदों में सूर्य का सजीव चित्रण पाया जाता है जो उसके परवर्ती मूर्ति विज्ञान का आधार है। वह एक घोड़े अथवा बहुसंख्यक घोड़ों (हरितः) से खींचा जाता है। ये घोड़े स्पष्टतः उसको प्रकाश किरणों के प्रतीक हैं। कहीं कहीं हंस, गरुड, वृषभ, अश्व, आकाशरत्न आदि के रूप में भी उसकी कल्पना की गयी है । वह कहीं उषा का पुत्र (परवर्ती होने के कारण और कहीं उसके पीछेपीछे चलने वाला उसका प्रणयी कहा गया है। (ऋ० १.११५.२)। वह द्यौ का पुत्र भी कहा गया है (वास्तव में सम्पूर्ण देवमण्डल द्यावापृथ्वी का पुत्र है)।
सूर्य वास्तव में अग्नि तत्त्व का ही आकाशीय रूप है। वह अन्धकार और उसमें रहने वाले राक्षसों का विनाश करता है। वह दिनों की गणना और उनका संवर्द्धन भी करता (ऋ०८.४८.७) है। इसको एक स्थान पर विश्वकर्मा भीकहा गया है। उसके मार्ग का निर्माण देवता, विशेषकर वरुण और आदित्य, करते हैं। यह प्रश्न पूछा गया है कि आकाश से सूर्य का बिम्ब क्यों नहीं गिरता (वही ४.१३. ५)। उत्तर है कि सूर्य स्वयं विश्व के विधान का संरक्षक है; उसका चक्र नियमित, अपरिवर्तनीय, सार्वभौम नियम का अनुसरण करता है। विश्व का केन्द्र स्थानीय है । वह जंगम और स्थावर सभी का आत्मा है (ऋग्वेद १.११५.१ )।
सूर्य की वैदिक कल्पना का पुराणों और महाभारत
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