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सुकृततृतीयाव्रत-सुदर्शन-षष्ठी लगाया जाय, तदनन्तर शुद्ध जल से स्नान करना चाहिए। स्नानोपरान्त दूर्वा, पीपल, शमी तथा गौको स्पर्श किया जाय । १०८ आहुतियों से मंगल ग्रह को निमित्त मानकर हवन करना चाहिए । सुवर्ण अथवा रजत अथवा ताम्र अथवा सरल नामक काष्ठ या चीड़ या चन्दन के बने हुए पात्र में मंगल ग्रह की प्रतिमा स्थापित कर उसका
का विधान है। इस व्रत में त्रिविक्रम (विष्णु) का श्वेत, पीत, रक्त पुष्पों से, तीन अङ्गरागों से, गुग्गुल, कुटुक (कुटकी) तथा राल की धूप से पूजन करना चाहिए । इस अवसर पर उन्हें त्रिमधुर (मिसरी, मधु, मक्खन) अर्पित किए जाय। तीन ही दीपक प्रज्ज्वलित किए जाय। यव, तिल तथा सरसों से हवन करना चाहिए । इस व्रत में त्रिलोह (सुवर्ण, रजत तथा ताँबे) का दान करना चाहिए। सुकृततृतीयावत-हस्त नक्षत्र युक्त श्रावण शुक्ल तृतीया को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। यह तिथिव्रत है। इसमें नारायण तथा लक्ष्मी का पूजन विहित है। तीन वर्षपर्यन्त इसका आचरण होना चाहिए। उस समय 'विष्णोर्नु कम्०' तथा 'सक्तुमिव' आदि ऋग्वेद के मन्त्रों
का पाठ होना चाहिए। सुख-नैयायिकों के अनुसार आत्मवृत्ति विशेष गुण है। वेदान्तियों के अनुसार यह मन का धर्म है। गीता (अ० १८) में सुख के सात्त्विक, राजस, तामस तीन । प्रकार कहे गये हैं । सुख जगत् के लिए काम्य है और धर्म से उत्पन्न होता है । गरुडपुराण (अध्याय ११३) में सूख के कारण और लक्षण बतलाये गए हैं।
रागद्वेषादियुक्तानां न सुख कुत्रचित् द्विज । विचार्य खलु पश्यामि तत्सुखं यत्र निर्वृतिः ॥ यत्र स्नेहो भयं तत्र स्नेहो दुःखस्य भाजनम् । स्नेहमलानि दुःखानि तस्मिंस्त्यक्ते महत्सुखम् ।। सर्व परवशं दुःखं सर्वमात्मवश सुखम् । एतद्विद्यात्समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः ।। सुखस्यानन्तरं दुःखं दुःखस्यानन्तरं सुखम् ।
सुखं दुःखं मनुष्याणां चक्रवत्परिवर्तते ।। सुखरात्रि अथवा सुखरात्रिका-यह लक्ष्मीपूजन दिवस है (कार्तिक की अमावस्या) । दीवाली के अवसर पर
इसे सूख रात्रिका के नाम से सम्बोधित किया जाता है। सखवत-शक्लपक्ष की चतुर्थी को भौमवार पड़े तब यह सुखदा कही जाती है। इस दिन नक्त विधि से आहारादि करना चाहिए। इस प्रकार से चार चतुर्थियों तक इस व्रत की आवृत्ति की जाय । इस अवसर पर मंगल का पूजन होना चाहिए, जिसे उमा का पुत्र समझा जाता है। सिर पर मृत्तिका रखकर फिर उसे सारे शरीर में
सुगतिपौषमासीकल्प (पौर्णमासी)-फाल्गुन शुक्ला पूर्णिमा को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। यह तिथिव्रत है । विष्णु इसके देवता हैं। व्रती को नक्त विधि से लवण तथा तैलरहित आहार करना चाहिए। एक वर्ष तक इस व्रत का अनुष्ठान होना चाहिए। वर्ष को चारचार मासों के तीन भागों में बाँटकर लक्ष्मी सहित केशव का पूजन करना चाहिए। व्रत के दिन अधार्मिकों, नास्तिकों, जघन्य अपराधियों तथा पापात्माओं एवं चाण्डालों से वार्तालाप भी नहीं करना चाहिए । रात्रि के समय भगवान् हरि तथा लक्ष्मी को चन्द्रमा के प्रतिभासित होते हुए देखना चाहिए । सुतीक्ष्ण आश्रम-यह स्थान मध्य प्रदेश में वीरसिंहपुर से लगभग चौदह मील है । शरभङ्ग आश्रम से सीधे जाने में दस मील पड़ता है। यहाँ भी श्रीराम मन्दिर है। महर्षि अगस्त्य के शिष्य सुतीक्ष्ण मुनि यहाँ रहते थे । भगवान् राम अपने वनवास में यहाँ पर्याप्त समय तक रहे थे।
कुछ विद्वान् वर्तमान सतना (म०प्र०) को ही सुतीक्ष्णआश्रम का प्रतिनिधि मानते हैं। चित्रकूट से सतना का सामीप्य इस मत को पुष्ट करता है। सुदर्शन-विष्णु का चक्र (आयुध)। मत्स्यपुराण (११.२७-३०) में इसकी उत्पत्ति का वर्णन है। सवर्शनषष्ठी-राजा या क्षत्रिय इस व्रत का आचरण करते हैं। कमलपुष्पों से एक मण्डल बनाकर चक्र की नाभि पर सुदर्शन चक्र की तथा कमल की पंखुड़ियों पर लोकपालों की स्थापना की जाय । चक्र के सम्मुख अपने स्वयं के अस्त्र-शस्त्र स्थापित किये जाय । तदनन्तर लाल चन्दन के प्रलेप, सरसों, रक्त कमल तथा रक्तिम वस्त्रों से सबकी पूजा की जाय । पूजन के उपरान्त गुड़मिश्रित नैवेद्य समर्पण करना चाहिए। इसके पश्चात् शत्रुओं
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