Book Title: Hindu Dharm Kosh
Author(s): Rajbali Pandey
Publisher: Utter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou

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Page 686
________________ ६७२ सिता सप्तमी-सिद्धिविनायकव्रत उज्जैन और सबके बाद नासिक (व्यम्बकेश्वर ) में छः फलों से पूजन तथा अन्य कृत्य किये जायें। इसके गोदावरीतट पर रखा गया था। इसके अनुसार नासिक- अतिरिक्त जप, होम तथा सूर्य के सम्मुख लेटकर गायत्रीपञ्चवटी में गोदावरीतट पर सिंहस्थस्नान या कुम्भ का मंत्र का जप करना चाहिए। सूर्य प्रतिमा के सम्मुख पर्व पूरे श्रावण मास तक मनाया जाता है। लेटने के समय कुछ स्वप्नों से पार्थक्य, विभिन्न प्रकार के सिता सप्तमी-भुवनेश्वर ( उड़ीसा ) की चौदह यात्राओं पुष्पों के समर्पण से उनके फल तथा पुण्य भी विभिन्न में से एक यात्रा की तिथि । माघ शुक्ल सप्तमी को इस मिलते हैं, यथा-कमल पुष्पों से यश, मन्दार पुष्पों से यात्रा के अनुष्ठान का नियम है। कुष्ठ तथा अगस्त्यके पुष्पों से सफलता। ब्राह्मणों को रंगसिद्ध-देवताओं का एक विशेष वर्ग, उपदेव । अणिमा विरंगे वस्त्र, इत्र, पुष्प, हविष्यान्न तथा गौ के दान का महिमादि गुणों से संयुक्त विश्वावसु (गन्धर्व ) आदि विधान है। इसमें सम्मिलित हैं। सिद्धि-अहेतुक अद्भुत सफलता या चमत्कार । मार्कण्डेय सिद्धनक्षत्र-शुक्रवार, प्रतिपदा, षष्ठी, एकादशी तथा वयो- पुराण ( दत्तात्रेयालर्क संवाद, योगवल्लभ नामक दशी एवं पूर्वा-फाल्गुनी, उत्तराषाढ़, हस्त, श्रवण तथा अध्याय ) में अष्ट सिद्धियों के नाम और लक्षण रेवती की गणना सिद्ध नक्षत्रों में है। समस्त पुनीत कृत्य बतलाये गये हैं : इन्हीं उपर्युक्त नक्षत्रादिकों के अवसर पर किये जाने अणिमा महिमा चैव लघिमा प्राप्ति रेवच । चाहिए। प्राकाम्यञ्च तथेशित्वं वशित्वञ्च तथापरम् ।। सिद्धान्त-पूर्वपक्ष का निरास (खण्डन) करके उत्तर पक्ष यत्र कामावसायित्वं गुणानेतानथैश्वरान् । की स्थापना । सिद्ध = वादि-प्रतिवादिनिर्णीत, अन्त = अर्थ प्राप्नोत्यष्टौ नरव्याघ्र परनिर्वाणसूचकान् ।। जिसमें हो । ग्रहगति के निर्णायक नवविध ज्योतिष ग्रन्थों सूक्ष्मात् सूक्ष्मतरोऽणीयान् शीघ्रत्वाल्लघिमा गुणः । को भी सिद्धान्त कहा जाता है-१. ब्रह्म सिद्धान्त २. महिमाशेषपूज्यत्वात् प्राप्ति प्राप्यमस्य यत् ।। सूर्य सिद्धान्त ३. सोम सिद्धान्त ४ बृहस्पति सिद्धान्त प्राकाम्यमस्य व्यापित्वात् ईशित्वो चेश्वरो यतः । ५. गर्ग सिद्धान्त ६. नारद सिद्धान्त ७. पराशर सिद्धान्त वशित्वात् वशिता नाम योगिनः सप्तमो गुणः ।। पुलस्त्य सिद्धान्त और ९. वसिष्ठ सिद्धान्त । यथेच्छास्थानमप्युक्तं यत्र कामावसायिता। सिद्धार्थ-शाक्य सिंह (गौतम बुद्ध)। जैन तीर्थङ्कर महा- ऐश्वर्य कारण रेभिर्योगिनः प्रोक्तमष्टधा ॥ वीर के पिता का नाम भी सिद्धार्थ था। श्वेत सरसों का ब्रह्मवैवर्तपुराण (१.६.१८-१९) में अठारह सिद्धियों की भी नाम सिद्धार्थ है, क्योंकि वह मांगलिक तथा सिद्धिदाता गणना की गयी है : मानी जाती है । अणिमा लघिमा प्राप्तिः प्राकाम्यं महिमा तथा । सिद्धार्थकादिसप्तमी--माघ अथवा मार्गशीर्ष मास की ईशित्वञ्च वशित्वञ्च सर्वकामावसायिता ॥ सप्तमी को इस व्रत का अनुष्ठान किया जाता है। यदि सर्वज्ञ दूरश्रवणं परकायप्रवेशनम् । व्रती रुग्ण हो तो किसी मास की किसी भी सप्तमी को वासिद्धि: कल्पवृक्षत्वं स्रष्टुं संहर्तुमीशता ।। व्रत का आयोजन किया जा सकता है। इसमें सूर्योदय से अमरत्वञ्च सर्वाङ्गं सिद्धयोऽष्टादश स्मृताः । अर्द्ध प्रहर पूर्व (लगभग चार घड़ी पूर्व तक ) निश्चित सिद्धियोगिनी-अग्निपुराण के गणभेद नामक अध्याय में वृक्षों की दातुन से दन्तशुद्धि करनी चाहिए। जैसे मधूक, बतलाया गया है कि दक्ष की पचास कन्यायें थीं। वे ही अर्जन, नीम, अश्वत्थ । दाँत साफ करने के बाद दातुन सिद्धियोगिनियों के रूप में विख्यात हुई। फेंकने के स्थानों से शकुन विचार सम्भव है। सात सिद्धिविनायकव्रत-शुक्ल पक्ष की चतुर्थी के दिन अथवा सप्तमियों को इस व्रत का आयोजन किया जाय । प्रथम जिस दिन व्रती के हृदय में धार्मिक प्रवृत्ति का स्फुरण हो सप्तमी को सरसों से, द्वितीय सप्तमी को आक की कलियों उसी दिन इस का अनुष्ठान निहित है। इस दिन तिलसे, तृतीय सप्तमी से आगे तक क्रमशः मरिच, नीम, मिश्रित जल से स्नान करना चाहिए। इस समय गणेश उबले हुए चावलों को छोड़कर अन्य खाद्यान्नों के साथ जी की सुवर्ण अथवा रजत प्रतिमा को पञ्चामृत से स्नान या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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