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सावित्री-सिंहस्थ गुरु
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तृतीयां वडवामेके तासां संज्ञा सुतास्त्रयः ।
द्वारा यह व्रत किया जाता है । पराशर के अनुसारयमो यमी श्राद्धदेवश्छायायाश्च सुतान् शृणु ।।
मेषे वा वृषभे वाऽपि सावित्री तां विनिद्दिशेत् । सावणिस्तपती कन्या भार्या संवरणस्य या ।
जेष्ठकृष्ण चतुर्दश्यां सावित्रीमर्चयन्ति याः । शनैश्चरस्तृतीयोऽभूदश्विनौ वडवात्मजौ ।।
वटमूले सोपवासा न ता वैधव्यमाप्नुयुः ।। अष्टमेऽन्तरे आयाते सावणिर्भविता मनुः ।
सावित्रीसूत्र-उपनयन संस्कार के अवसर पर जो सूत्र निर्मो कविरजस्काद्या साणितनया नृप ।।
धारण किया जाता है उसका नाम सावित्रीसूत्र है। सावित्री-(१) सविता (सूर्य) की उपासना जिस वैदिक कारण यह है कि वटु सावित्री दीक्षा के समय इसको मन्त्र 'गायत्रो' से की जाती है उसका नाम सावित्री है। ग्रहण करता है । दे० 'यज्ञोपवीत' । प्रतीक और रहस्य के विकास से सावित्री की कल्पना का सिंहवाहिनी-दुर्गा देवी । देवीपुराण (अध्याय ४५) के बहुत विस्तार हुआ है।
अनुसार(२) मेदिनी के अनुसार यह उमा का एक पर्याय है । सिंहमारुह्य कल्पान्ते निहतो महिषो यतः । देवीपुराण (अध्याय ४४) के अनुसार इसके नामकरण का महिषघ्नी ततो देवी कथ्यते सिंहवाहिनी ।। कारण इस प्रकार है : त्रिदशैरञ्चिता देवी वेदयागेषु पूजिता ।
सिंहस्थ गुरु-जिस समय बृहस्पति ग्रह सिंह राशि पर
आता है उस समय विवाह, यज्ञोपवीत, गृह-प्रवेश (प्रथम भावशुद्धस्वरूपा तु सावित्री तेन सा स्मृता ॥
बार ), देव प्रतिष्ठा तथा स्थापना तथा इसी प्रकार के अग्नि पुराण (ब्राह्मण प्रशंसानामाध्याय) में उनके नाम
अन्य मांगलिक कार्य निषिद्ध रहते हैं । दे० 'मलमास तत्त्व' करण का कारण निम्नांकित है :
१०८२.। ऐसा भी विश्वास किया जाता है कि जब सर्वलोकप्रसवनात् सविता स तु कीर्त्यते ।
बृहस्पति सिंह राशि पर आ जाता है उस समय समस्त यतस्तद्देवता देवी सावित्रीत्युच्यते ततः ।
तीर्थ गोदावरी नदी में जाकर मिल जाते हैं। इसलिए वेदप्रसवनाच्चापि सावित्री प्रोच्यते बुधैः ।।
श्रद्धालु व्यक्ति को उस समय गोदावरी में स्नान करना मत्स्यपुराण (३.३०-३२) के अनुसार सावित्री ब्रह्मा
चाहिए। इस विषय में शास्त्रकारों के भिन्न-भिन्न मत हैं की पत्नी कही गयी हैं :
कि सिंहस्थ गुरु के समय विवाह-उपनयनादि का आयोजन ततः संजपतस्तस्य भित्त्वा देहमकल्मषम् ।
हो या न हो। कुछ का मत है कि विवाहादि माङ्गलिक स्त्रीरूपमर्द्धमकरोदई पुरुषरूपवत् ।।
कार्य तभी वजित है जब बृहस्पति मघा नक्षत्र पर अवशतरूपा च सा ख्याता सावित्री च निगराते ।
स्थित हो ( यथा सिंह के प्रथम १३।। अंश)। अन्य सरस्वत्यथ गायत्री ब्रह्माणी च परन्तप ।।
शास्त्रकारों का कथन है कि गंगा तथा गोदावरी के मध्य(३) सावित्री का एक ऐतिहासिक चरित्र भी है।
वर्ती प्रदेशों में उस काल तक विवाह तथा उपनयनादि महाभारत ( वनपर्व, अध्याय २९२) के अनुसार वह
निषिद्ध हैं जब तक बृहस्पति सिंह राशि पर विद्यमान हो, केकय के राजा अश्वपति की कन्या और साल्वदेश के
किन्तु अन्य धार्मिक कार्यों का आयोजन हो सकता है। राजा सत्यवान् की पत्नी थी। अपने अल्पायु पति का
केवल वह उस समय नहीं हो सकता जब बृहस्पति मघा जब एक बार वरण कर लिया तो आग्रहपूर्वक उसी से नक्षत्र पर अवस्थित हों। अन्य शास्त्रकारों का कथन है विवाह किया। किस प्रकार अपने मृत पति को वह कि यदि सूर्य उस समय मेष राशि पर विद्यमान हो तो यमराज के पाशों से वापस लाने तथा अपने पिता को सिंहस्थ गरु होने पर भी धार्मिक कार्यों के लिए कोई सौ पुत्र दिलाने में सफल हुई, यह कथा भारतीय साहित्य
निषेध नहीं है। इन सब विवादों के समाधानार्थ दे० में अत्यधिक प्रचलित है । सावित्री पातिव्रत का उच्चतम
स्मृतिको०, पृ० ५५७-५५९। यह तो लोक-प्रसिद्ध प्रतीक है।
विश्वास है ही कि समुद्र मंथन के पश्चात् निकला हआ सावित्रीव्रत-ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी अमावस्या को स्त्रियों
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