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साधु-साम
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अन्य दर्शनों में भी साधन-क्रम पाया जाता है। मनो मन्ता तथा प्राणो नरोऽपानश्च वीर्यवान् । प्रत्येक साधन के लिए साधन की आवश्यकता होती है। विनिर्भयो नयश्चैव दंसो नारायणो वृषः । वेदान्त में मुक्ति साधन से उपलब्ध न होकर अनुभूति का प्रभुश्चेति समाख्याता साध्या द्वादश पौर्विकाः ।। विषय है। किन्तु अनुभूति के लिए जिज्ञासा और ज्ञान सानन्दूर-एक श्रेष्ठ तीर्थ ( कर्नाटक में ) । वाराह पुराण आवश्यक है। जिज्ञासा और ज्ञान के लिए काम्य और के सानन्दूर माहात्म्य में इसका वर्णन पाया जाता है। निषिद्ध कर्मों का परित्याग करना चाहिए । नित्य एवं एक बार पृथ्वी ने विष्णु से पूछा कि क्या द्वारका से भी कोई नैमित्तिक कर्म, प्रायश्चित्त, उपासना आदि चित्तशुद्धि के अन्य तीर्थ उत्तम है ? इसके उत्तर में भगवान् विष्णु ने लिए करना आवश्यक है । विवेक, वैराग्य, शम, दम, कहा : उपरति, तितीक्षा, मुमुक्षा, श्रद्धा, समाधान ( समाधि )
सानन्दुरेति विख्यातं भूमे ! गुह्यं परं मम । आदि वेदान्त में भी जिज्ञासु के लिये आवश्यक साधन उत्तरे तु समुद्रस्य मलयस्य च दक्षिणे । माने गये हैं।
तत्र तिष्ठामि वसुधे उदीचीदिर्शिमाश्रितः ।। साधु-धर्म आदि कार्यों का सम्पादन करने वाला प्रतिमा व मदीयास्ति नात्युच्चा नातिनीचका । ( साधयतिधर्मादिकार्यमिति ) अथवा जो दूसरों के अत्यसी तां वदन्त्येके अन्ये ताम्रमयी तथा । कार्यों को सिद्ध करता है ( साध्नोति पर कार्याणीति )
कांस्यी रीतिमयीमन्ये केचित् सीसकनिर्मिताम् । पद्मपुराण (उत्तरखण्ड, अध्याय ९९) में साधु के निम्नां
शिलामयीमित्यपरे महदाश्चर्यरूपिणीम् ।। कित लक्षण बताये गये हैं :
तत्र स्थानानि मे भूमे ! कथ्यमानं मया शृणु । यथालब्धेऽपि सन्तुष्टः समचित्तो जितेन्द्रियः ।
मनुजा यत्र मुच्यन्ते गताः संसारसागरम् ।। हरिपादाश्रयो लोके विप्रः साधुरनिन्दकः ।। १ ।। सान्दीपनि-कृष्ण और बलराम के शिक्षागुरु एक मुनि । निवैरः सदयः शान्तो दम्भाहंकारवजितः । सन्दीपन के वंश में ये उत्पन्न हुए थे, अतः इनका निरते क्षो मुनिर्वीतरागः साधुरिहोच्यते ॥ २ नाम सान्दीपनि पड़ा । ब्रह्मवैवर्तपुराण ( श्री कृष्ण जन्म लोभमोहमदक्रोधकामादिरहितः सुखी।। खण्ड, अध्याय ९९ ३० ) में इनका वर्णन मिलता है : कृष्णाज्रिशरणः साधुः सहिष्णुः समदर्शनः ।। ३
विदिताखिलविज्ञानौ तत्त्वज्ञानमथावपि । गरुडपुराण में साधु का दूसरा लक्षण मिलता है :
शिष्याचार्यक्रमं वीरौ ख्यातयन्तौ यदुत्तमौ ।। न प्रहृष्यति सम्माने नावमाने च कुप्यति ।
ततः सान्दीपनि काश्यमवन्तिपुरवासिनम् । न क्रुद्धः परुषं ब्रूयादेतत् साधोस्तु लक्षणम् ॥११३.४२ अस्त्रार्थ जग्मतुवीरौ बलदेवजनार्दनौ ।। अग्निपुराण (दानावस्थानिर्णयाध्याय) में साधु के स्वभाव विष्णुपुराण (५,२१.१८-३० ) के अनुसार कृष्ण और का वर्णन इस प्रकार है :
और बलराम दोनों भाइयों ने सान्दीपनि से अस्त्र-विद्या त्यक्तात्मसुखभोगेच्छाः सर्वसत्त्वसुखैषिणः ।
पढ़ी और गुरु दक्षिणा में वे उनके मृतपुत्र को पञ्चजन भवन्ति परदुःखेन साधवो नित्यदुःखिताः ।।
नामक राक्षस को मार कर वापस लाये । भागवतपुराण के परदुःखातुरा नित्यं स्वसुखानि महान्त्यपि ।
अनुसार कृष्ण-बलराम के साथ सुदामा भी सान्दीपनि के नापेक्षन्ते महात्मानः सर्वभूतहिते रताः ।।
शिष्य थे और इन तीनों में बड़ा सौहार्द था। सुदामा की इस प्रकार के सत्य-न्यायपरायण व्यवहारी वैश्य भी कथा प्रसिद्ध है। 'साध' कहे जाते थे, जिनको विश्वासपात्र समझकर लोग साम-चार वेदों में से तृतीय । भरत के अनुसार इसको धन-सम्पत्ति का लेन-देन करते थे ।
साम इसलिए कहते हैं कि यह पाप को छिन्न करता रहता साध्य-सामूहिक देवगण। भरत के अनुसार इनकी है ( स्यति पापं नाम )। जैमिनि ने इसका लक्षण बतसंख्या बारह है (साध्या द्वादश विख्याता रुद्राश्चैकादश लाया है : 'गीतिषु सामाख्या इति' । तिथ्यादितत्त्व में स्मृताः)। अग्निपुराण के गणभेदनामाध्याय में इनके नाम कहा गया है : “गीयमानेषु मन्श्रेषु सामसंज्ञेत्यर्थः" । दे० इस प्रकार पाये जाते हैं :
'वेद' शब्द ।
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