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सात्त्विक-साधन
कूर्मपुराण (पूर्वभाग, यदुवंशानुकीर्तन, २४. ३१-३६ ) में यदुवंशी सत्वत राजा के पुत्रों का नाम सात्वत है। मनुस्मृति में संकरजातिविशेष का नाम सात्वत आया है । ऐसा लगता है कि भागवत सात्वतों में परम्पराविरोधी प्रवृत्तियाँ अधिक बढ़ गयी थीं, जिनके कारण मनु ने उनको संकर जातियों में परिगणित किया। सात्त्विक-सांख्य दर्शन के अनुसार प्रकृति में तीन गुण होते है-सत्त्व, रज और तम । सत्त्व की विशेषता है प्रकाश शौर ज्ञान । इनसे उत्पन्न या सम्बद्ध भाव सात्त्विक कहलाता है। सर्वदानन्द ने इसकी परिभाषा निम्नांकित प्रकार से की है :
'सत्त्वोत्कटे मनसि ये प्रभवन्ति भावा
स्ते सात्त्विका इति विदुर्मुनि पुङ्गवास्ते ।' (मनोदशासूचक ) सात्त्विक भावों की परिगणना इस प्रकार है :
स्वेदः स्तम्भोऽथ रोमाञ्चः स्वरभङ्गोऽथ वेपथुः । वैवर्णमथुप्रलय इत्यष्टौ सात्त्विका मताः ।।
भगवद्गीता ( अध्याय १७-१८ ) में सात्त्विक जीवन का विवरण विस्तार से दिया हुआ है। साधक-धार्मिक अथवा दार्शनिक उपलब्धियों के लिए जो प्रयास करते हैं और अपने इष्ट का सम्पादन करते हैं, वे साधक कहलाते हैं। देवीपुराण के नन्दामाहात्म्य में साधक का निम्नांकित लक्षण दिया हुआ है :
अतः परं प्रवक्ष्यामि साधकानां तु लक्षणम् । धर्मशीलास्तपोयुक्ताः सत्यवादिजितेन्द्रियाः ।। मात्सर्येण परित्यक्ताः सर्वसत्त्वहिते रताः । कर्मशीलास्तथोत्साहा मर्त्यलोकेऽजुगुप्सकाः ॥ परस्परसुसन्तुष्टानुकूलाः साधकस्य तु । इदृशैः साधनं कुर्यात् सुसहायैः सहैव तु ॥
शिवसंहिता में और विस्तार से साधक वर्णन पाया जाता है : (१) चतुर्धा साधको ज्ञेयो मृदुमध्याधिमात्रकः ।
अधिमायतमः श्रेष्ठो भवाब्धौ लङ्घनक्षमः ।। महावीर्यान्वितोत्साही मनोज्ञः शौर्यवानपि । शास्त्रज्ञोऽभ्यासशीलश्च निर्ममश्च निराकूलः ।। नवयौवनसम्पन्नो मिताहारी जितेन्द्रियः । निर्भयश्च शुचिर्दक्षो दाता सर्वजनाश्रयः ।। अधिकारी स्थिरो धीमान यथेच्छावस्थितः क्षमी। सुशीलो धर्मचारी च गुप्तचेष्टः प्रियंवदः ।।
शास्त्रविश्वाससम्पनो देवतागुरुपूजकः । अनसङ्गविरक्तश्च महाव्याधिविवर्जितः ।। अणिमावतयोग्यश्च सर्वयोगस्य साधकः । त्रिभिःसंवत्सरः सिद्धिरेतस्य स्यान्न संशयः ।।
सर्वयोगाधिकारी च नाव कार्या विचारणा ।। साधन-योगदर्शन के साधन पाद में योग के आठ अङ्ग अथवा साधन बतलाये गये हैं यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि ।
१. यम-मानसिक, वाचिक और कायिक संयम को यम कहते हैं । इसमें निम्नाकित सम्मिलित हैं।
(क) अहिंसा-सर्वदा तथा सर्वथा जीवमात्र को दुःख न पहुंचाना।
(ख) सत्य-मन और वचन में यथार्थता । जिमको जैसा देखा, सुना और जाना हो, उसको वैसा ही कहना ।
(ग) अस्तेय-दूसरे का सत्त्वापहरण न करना और न उसकी कामना ही करना ।
(घ) ब्रह्मचर्य-ब्रह्म का आचरण । इन्द्रियों में लोलुपता का अभाव । विशेषकर जननेन्द्रियों का संयम ।
(ङ) अपरिग्रह-अनावश्यक संग्रह न करना, दान आदि न लेना।
२. नियम-(क) शौच-मन, वचन और शरीर की पवित्रता (ख) सन्तोष (ग) तप (घ) स्वाध्याय (ङ) ईश्वर प्रणिधान ।
३. आसन-जिस प्रकार बैठने से चित्त को स्थिरता और सुख मिले उसे आसन कहते हैं । यथा (क) सुखासन (ख) पद्मासन (ग) भद्रासन (घ) वीरासन ।
४. प्राणायाम-(क) रेचक (ख) कुम्भक (ग) पूरक ।
५. प्रत्याहार-इन्द्रियों को उनके विषयों से हटाकर उनको अन्तर्मुखी करना।
६. धारणा-चित्त को किसी एक स्थान में स्थिर करने का नाम धारणा है ।
७. ध्यान-जब किसी एक स्थान में ध्येय वस्तु का ज्ञान देरतक एक प्रवाह में संलग्न होता है तब उसे ध्यान कहते हैं।
८. समाधि-जब ध्यान ध्येय के आकार में भासित होता है और अपना स्वरूप छोड़ देता है तो उस परिस्थिति को समाधि कहते हैं। इसमें ध्यान और ध्यान का ध्येय में लय हो जाता है।
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