Book Title: Hindu Dharm Kosh
Author(s): Rajbali Pandey
Publisher: Utter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou

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Page 680
________________ साक्ष्य-सांख्य साक्ष्य-साक्षी के कर्म को साक्ष्य कहा गया है। साक्ष्य की सिद्धि के विषय में मनु का कथन है : समक्षदर्शनात् साक्ष्यं श्रवणाच्चैव सिध्यति । यत्रानिरुद्धी वीक्ष्येत शृणुयाद्वापि किञ्चन । पृष्टस्तत्रापि तब्रूयात् यथादृष्टं यथा श्रुतम् ।। सांख्य--षड्दर्शनों में से एक । इसकी व्युत्पत्ति होती है 'सम्यक् प्रकार से ख्यात, ख्याति अथवा विचार' । जिस दर्शन में प्रकृति और पुरुष के भेद के सम्बन्ध में सम्यक विचार किया गया हो उसको सांख्य कहते हैं। प्रकृति तथा पुरुष के इस पृथक्करण को विवेकख्याति, विवेकज्ञान अथवा प्रकृति-पुरुषविवेक भी कहते हैं । एक मत यह भी है कि मूल प्रकृति से अभिव्यक्त पचीस तत्त्वों की इसमें संख्या (गणना) की गयी है, अतः यह दर्शन सांख्य कहलाता है। परन्तु पहली व्याख्या अधिक युक्तिसंगत है। सांख्य ज्ञान के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा, इसलिए ज्ञानमार्ग को सांख्य कहते हैं। सांख्यदर्शन के प्रवर्तक कपिल थे जिनकी गणना पौराणिकों ने अड़तालीस अवतारों के अन्तर्गत की है। भाग- वतपुराण में कपिल विष्णु के पञ्चम अवतार माने गये हैं। कपिल के साक्षात् शिष्य आसुरि और आसुरि के पञ्चशिख थे । पञ्चशिख ने सांख्य के ऊपर एक सूत्र ग्रन्थ की रचना की थी। इसके बहुत बाद ईश्वरकृष्ण ने ईसापूर्व दूसरी शती में 'सांख्यकारिका' की रचना की जो सांख्यदर्शन पर सबसे अधिक प्रामाणिक ग्रन्थ है। इसपर कई टीकायें लिखी गयी हैं। इनमें माठरवृत्ति, गौडपाद भाष्य, जयमङ्गला, चन्द्रिका, सरलसांख्ययोग, तत्त्वकौमुदी (वाचस्पति मिश्र), युक्तिदीपिका, और सुवर्णसप्तति (चीनी संस्करण) विशेष प्रसिद्ध है। इस सम्प्रदाय के दूसरे प्रमुख आचार्य विज्ञानभिक्षु हुए, जिनका काल सोलहवीं शती ई० था। इन्होंने इस समय उपलब्ध 'सांख्यसूत्र' की रचना की और इस पर 'सांख्यप्रवचन भाष्य' भी लिखा । ईश्वरकृष्ण निरीश्वर सांख्य के समर्थक थे और विज्ञानभिक्षु सेश्वर सांख्य के। सांख्यप्रवचन भाष्य में सांख्य और वेदान्त दोनों का समन्वय पाया जाता है । सांख्य के अनुसार तीन प्रकार के तत्त्व है-व्यक्त, अव्यक्त और ज्ञ । 'ज्ञ चेतन है । यही पुरुष है। 'अव्यक्त' को मूल प्रकृति अथवा प्रधान कहते हैं। यह जड़ है। 'व्यक्त' कार्यकारण-परम्परा से मल प्रकृति (अव्यक्त) का परिणाम है। इसके तेईस भेद हैं। सांख्यदर्शन में ये ही पचीस प्रमेय अथवा तत्त्व हैं। इन्हीं तत्त्वों के यथार्थ ज्ञान से दुःख की निवृत्ति होती है (व्यक्ताव्यक्तज्ञविज्ञानात्) । विवेक, ज्ञान अथवा ख्याति ही सांख्य के अनुसार मोक्ष है। सांख्य सृष्टि प्रक्रिया में ईश्वर का अस्तित्व आवश्यक नहीं मानता। उसका कथन है कि ईश्वर की सत्ता सिद्ध नहीं की जा सकती। इसी कारण सांख्य को निरीश्वर कहा जाता है। पुरुष निष्क्रिय, निर्गुण और निलिप्त है । किन्तु अन्य दो तत्व अव्यक्त और व्यक्त (प्रकृति) त्रिगुण, अविवेकी आदि धर्मी से युक्त हैं। इन तत्त्वों का परस्पर सम्बन्ध समझने के लिए परिणाम और कार्य-कारण-भाव को समझना आवश्यक है । प्रत्येक पदार्थ में कोई न कोई धर्म होता है। यह धर्म परिवर्तनशील है । इसकी परिवर्तनशीलता को ही परिणाम कहते हैं । अर्थात् एक धर्म के बदलने पर उसके स्थान में दूसरे धर्म के आने को परिणाम कहा जाता है । परिणाम व्यक्त और अव्यक्त दोनों तत्त्वों में निरन्तर होता रहता है। संसार का प्रत्येक पदार्थ सत्त्व, रज और तम तीन गणों से बना हआ है । गुण का अर्थ है घटक अथवा रस्सी । जिस प्रकार तीन धागों के बटने से रस्सी तैयार होती है उसी प्रकार तीनों गणों के न्यूनाधिक मात्रा में संवलित होने पर विभिन्न पदार्थ निर्मित होते हैं। सत्त्व का स्वरूप प्रकाश अथवा ज्ञान है। रज का गुण चलन अथवा क्रियाशीलता है । तम का गुण है अवरोध, भारीपन आवरण आदि । इन्हीं तीनों गुणों की स्थिति के कारण पदार्थों में परिणाम होते रहते हैं। परिणाम तीन प्रकार के होते हैं-(१) धर्मपरिणाम (२) लक्षणपरिणाम और (३) अवस्थापरिणाम । मूल प्रकृति (अव्यक्त) जब साम्यावस्था में रहती है, अर्थात् जब तीनों गुण संतुलित अवस्था में होते हैं तब प्रकृति में परिणाम अथवा परिवर्तन नहीं होता। जब इनका संतुलन भंग होता है तब परिणाम अर्थात् कार्य होने लगता है । अव्यक्त और व्यक्त प्रकृति में कारण-कार्य सम्बन्ध है । अब प्रश्न यह है कि कारण-कार्य सम्बन्ध का अर्थ क्या है । न्याय के अनुसार कार्य कारण से भिन्न है। और कारण में कार्य का अभाव है। कार्य एक विशेष कारण ईश्वरेच्छा से उत्पन्न होता है। परन्तु सांख्य के अनुसार कार्य कारण से भिन्न न होकर उसमें वर्तमान रहता है। कारण से कार्य की उत्पत्ति का अर्थ है कारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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