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सर्वज्ञात्ममनि-सस्मोत्सव
इसके पश्चात् पाँच पुष्पाञ्जलिदान करके निम्नलिखित भारतीय दर्शनों को यहाँ दो भागों में बाँटा गया है। मन्त्र से प्रणाम करना चाहिये :
आस्तिक और नास्तिक । आस्तिक के अन्तर्गत न्याय, नमस्ते पार्वतीनाथ नमस्ते शशिशेखर ।
वैशेषिक, सांख्य, योग, पूर्वमीमांसा और उत्तरमीमांसा नमस्ते पार्वतीदेव्यै चण्डिकायै नमोनमः ।।
(वेदान्त) हैं : नास्तिक के अन्तर्गत चार्वाक, आईत, बौद्ध इस व्रत की कथा स्कन्दपुराण में विस्तार से दी हुई है आदि की गणना है । यह ग्रन्थ दार्शनिक दृष्टि से समुच्चऔर इसकी पूरी विधि कृत्यचन्द्रिका में ।
यवादी है। सर्वज्ञात्ममनि--प्रसिद्ध अद्वैत वेदान्ताचार्य संन्यासी। इनका सर्वमङ्गला--दुर्गा का एक पर्याय । ब्रह्मवैवर्तपुराण में इसकी जीवन-काल लगभग नवीं शती था । शृंगेरी के ये मठाधीश व्युत्पत्ति इस प्रकार है : थे । इनका अन्य नाम नित्यवोधाचार्य था । अद्वैतमत को हर्षे सम्पदि कल्याणे मङ्गलं परिकीर्तनम् । स्पष्ट करने के लिए इन्होंने 'संक्षेप शारीरक' नामक ग्रन्थ तान् ददाति च या देवी सा एव सर्वमङ्गला ।। का प्रणयन किया। इन्होंने अपने गुरु का नाम देवेश्वरा- देवीपुराण (अध्याय ४५) में सर्वमङ्गला की व्युत्पत्ति चार्य लिखा है । प्रसिद्ध भाष्यकार मधुसूदन सरस्वती और निम्नाङ्कित है : रामतीर्थ ने देवेश्वराचार्य को सुरेश्वराचार्य से अभिन्न सर्वाणि हृदयस्थानि मङ्गलानि शुभानि च । बतलाया है । परन्तु दोनों के काल में पर्याप्त अन्तर होने ददाति चेप्सितानि तेन सा सर्वमङ्गला ॥ से ऐसा मानना कठिन है। 'संक्षेपशारीरक' में श्लोक सर्वमेध-एक प्रकार का यज्ञ । इसमें यजमान अपनी सम्पूर्ण और वार्तिक दोनों का समावेश है। 'शारीरक भाष्य' के सम्पत्ति यज्ञ और दान में लगा देता था। समान इसमें भी चार अध्याय है और इनके विषयों का सवौं षधि-पूजा की सामग्रियों में इनकी गणना है। इस क्रम भी उसी प्रकार है । इनमें श्लोक-संख्या क्रमशः ५६३, वर्ग में निम्नांकित ओषधियाँ सम्मिलित हैं : २४८, ३६५ और ५३ हैं । सर्वज्ञात्ममुनि ने 'संक्षेप शारी- कुष्ठमांसीहरिद्राभिर्वचाशैलेयचन्दनः । रक' को 'प्रकरणवार्तिक' बतलाया है। अद्वैतसम्प्रदाय की मुराचन्दनकर्पूरैः मुस्तः सर्वौषधिः स्मृतः ।। परम्परा में यह ग्रन्थ बहत प्रामाणिक माना जाता है। इस सूची में द्वितीय चन्दनपद रक्तचन्दन के लिये प्रयुक्त इस पर मधुसूदन सरस्वती और रामतीर्थ ने टीकाएँ लिखी हुआ है । सर्वौषधिगण में औषधियों की एक लम्बी सूची जो बहुत प्रसिद्ध हैं।
पायी जाती है। दे० पद्मपुराण, उत्तरखण्ड अ० १०७; सर्वतोभद्र-माङ्गलिक अलङ्करण की एक वत्मिक विधा। अग्निपुराण, १७७.१७; राजनिघण्ट । इसके केन्द्र में मुख्य देव और पार्ववर्गों में अन्य देवों की सर्षपसप्तमी-यह तिथिव्रत है । सूर्य इसके देवता हैं । सात स्थापना होती है। अमरकोश (२-२-१०) के अनुसार सप्तमियों को व्रती सूर्याभिमुख बैठकर अपनी हथेली पर मन्दिर स्थापत्य का यह एक प्रकार भी है। द्वार-अलि- पञ्चगव्य अथवा अन्य कोई वस्तु रखते हुए प्रति सप्तमी न्दादि भेद से समृद्ध लोगों के आवास का एक प्रकार रूप को क्रमशः दो से सात तक सरसों के दाने रखकर उनका सर्वतोभद्र कहा जाता है । इसका लक्षण निम्नांकित है : अवलोकन करता रहे। अवलोकन के समय मन में किसी
स्वस्तिकं प्राङ्मुखं यत् स्यादलिन्दानुगतं भवेत् । वस्तु या कार्य की कामना करते हए दन्त स्पर्श किये बिना तत्पाश्र्वानुगतौ चान्यौ तत्पर्यन्तगतोऽपरः ।। पञ्चगव्य सहित सरसों का मन्त्रोच्चारण के साथ पान अनिषिद्धालिन्दभेदं चतुरिञ्च यद्गृहम् । कर लेना चाहिए । तनन्तर होम तथा जप का विधान है। तद्भवेत्सर्वतोभद्रं चतुरालिन्दशोभितम् ।। (भरत) इससे पुत्र, धन की प्राप्ति के साथ समस्त इच्छाएँ पूर्ण
ग्रहशान्ति, उपनयन, व्रत-प्रतिष्ठा आदि में पूजा का होती है। एक रंगीन आधारमण्डल सर्वतोभद्र नाम से बनाया जाता सस्योत्सव-सस्य के पकने के समय का उत्सव । मास के है । दे० शारदातन्त्र; तन्त्रसार ।
शक्ल पक्ष में किसी पवित्र तिथि, नक्षत्र तथा मुहूर्त के सर्वदर्शन संग्रह-माधवाचार्य द्वारा प्रणीत प्रसिद्ध दर्शन समय गाजे-बाजे के साथ खेतों की ओर जाना चाहिए ग्रन्थ । इसमें सभी दर्शनों का सार संग्रहीत किया गया है। तथा वहाँ अग्नि प्रज्वलित करके हवन करना चाहिए।
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