Book Title: Hindu Dharm Kosh
Author(s): Rajbali Pandey
Publisher: Utter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou

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Page 681
________________ सारवत में अव्यक्त रूप से वर्तमान कार्य का व्यक्त होना । इसी सिद्धान्त को सरकार्यवाद' कहते हैं। तीनों गुणों की साम्यावस्था प्रकृति हैं। इसमें रजोगुण क्रियाशील है किन्तु तमोगुण की स्थिति के कारण अवरुद्ध रहता है। पूर्वजन्म के कर्मों के फलस्वरूप अदृष्ट जीवों के साथ लगा रहता है। जब वह पाकोन्मुख होता है अर्थात् वह जीव को संसार में सुख-दुःख देने के लिए उन्मुख होता है तब तमोगुण का प्रभाव हट जाता है और प्रकृति में रजोगुण के कारण क्षोभ अथवा चाञ्चल्य उत्पन्न होता है । तब प्रकृति में विकृति अथवा परिणाम उत्पन्न होते हैं। और सृष्टि प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। प्रकृति के सात्त्विक अंश से पहले महत्-तत्व अर्थात् बुद्धिन्तस्व की अभिव्यक्ति होती है। इससे अहंकार अहंकार से ग्यारह इन्द्रियाँ - पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय और मन; इन्द्रियों से तन्मात्रायें - शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध; और तन्मात्राओं से पञ्चभूतों की अभिव्यक्ति होती है । सांख्यदर्शन प्रकृति और पुरुष के स्वरूप और सम्बन्ध का सूक्ष्म विवेचन करता है। मूल प्रकृति अव्यक्त अथवा अप्रत्यक्ष है । परन्तु इसका अस्तित्व सिद्ध किया जा सकता है । पुरुष अपरोक्ष है। बुद्धि के द्वारा भी यह प्रत्यक्ष नहीं किया जा सकता। यह त्रिगुणातीत और निर्लिप्त है । इसमें कोई लिङ्ग नहीं है, अतः अनुमान के द्वारा भी इसकी सिद्धि नहीं हो सकती । इसके अस्तित्त्व का एक मात्र प्रमाण है शब्द अथवा आगम । पुरुष अथवा ज्ञ अहेतुमान्, सर्वव्यापी और निष्क्रिय है । पुरुष एक है । परन्तु कई टीकाकारों के मत में सांख्य पुरुषबहुत्य के सिद्धान्त को मानता है। वास्तव में बद्धपुरुष में अनेकस्व है, जैसे अन्य दर्शनों के अनुसार जीवात्मा में । सांख्य में पुरुष की तीन स्थितियाँ हैं—बद्ध, मुक्त और ज्ञ । पुरुष ही मुक्त होने की चेष्टा करता है । बद्ध प्रकृति और पुरुष के सम्बन्ध, बन्धन और कैवल्य पर भी सांख्यदर्शन में सूक्ष्म विचार किया गया है। जैसा कि पहले कहा गया है, पुरुष स्वभावतः निलिस, त्रिगुणातीत निष्क्रिय और नित्य है। अविद्या भी नित्य है ( इन दोनों का सम्पर्क अनादि काल से चला आ रहा है । प्रकृति जड़ और नित्य है । पुरुष का बिम्ब जब प्रकृति पर पड़ता है तब बुद्धि उत्पन्न होती है और प्रकृति अपने को Jain Education International चेतन समझने लगती है। इसी प्रकार बुद्धि ( प्रकृति ) का प्रतिबिम्ब पुरुष पर भी पड़ता है। इसके कारण निर्लिप्त, त्रिगुणातीत निष्क्रिय पुरुष अपने को आसक कर्त्ता, भोक्ता आदि समझने लगता है । पुरुष और प्रकृति के इसी कल्पित और आरोपित सम्बन्ध को बन्धन कहते हैं। इस कल्पित सम्बन्ध को दूर कर अपने स्वरूप को प्रकृति से पृथक् करके पहचानना ही विवेक-बुद्धि, कैवल्य अथवा मुक्ति है । इसी स्थिति को प्राप्त कर पुरुष अपने को निर्लिप्त और निस्संग समझने लगता है। ज्ञान के अतिरिक्त धर्म और अधर्म आदि बुद्धि के सात भावों का प्रभाव जब लुप्त हो जाता है तब सृष्टि का कोई प्रयोजन नहीं रहता सृष्टि का उद्देश्य ( पुरुष की मुक्ति या कैवल्य ) पूर्ण हो जाने पर प्रकृति सृष्टि कार्य से विरत हो जाती है और पुरुष केवल्य को प्राप्त हो जाता है। कैवल्य के पश्चात् भी प्रारब्ध कर्मों और पूर्व जन्मों के संस्कारों के बने रहने के कारण तत्काल शरीर का विनाश नहीं होता । साधक जीवन्मुक्ति की अवस्था में रहता है भोग की पूर्ति होने पर जब शरीर का पतन होता है तब विदेह कैवल्य की उपलब्धियाँ होती हैं । ६६७ सांख्यदर्शन के अनुसार जीवन का परमपुरुषार्थ है तीन प्रकार के दुःखों - आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक से अत्यन्त निवृत्ति सत्य का बोध ही इसका चरम साधन और अत्यन्त लोकहित ही सत्य है । सात्वत - वासुदेव के भक्त अथवा सत्वत के वंशज यादव | हेमचन्द्र ने इसको बलदेव का पर्याय माना है । महाभारत ( १. २१९-१२ ) में इसको कृष्ण का पर्याय कहा गया है। महाभारत (१.२२२.३ ) में सम्पूर्ण यादवों के लिए इसका प्रयोग हुआ है। यह विष्णु का भी पर्याय है ( सच्छब्देन सत्त्वमूर्तिभगवान् । स उपास्यतया विद्यतेऽस्य इति । मतुप् । ततः स्वार्थे अण् । ) पद्मपुराण के उत्तर खण्ड (अध्याय ९९ ) में सात्वत का अर्थ है विष्णु का भक्त | इसका लक्षण निम्नांकित है : सत्त्वं सत्त्वाश्रयं सत्त्वगुणं सेवेत् केशवम् | योजनम्यत्वेन मनसा सात्वतः समुदाहृतः ॥ विहाय काम्यकर्मादीन् भजेदेकाकिनं हरिम् । सत्यं सत्वगुणोपेतो भक्त्या तं सात्य विदुः ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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