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सहधर्मिणी-साक्षी
तदनन्तर पके हुए धान्य को वैदिकमन्त्रों का उच्चारण [जिस गर्भिणी का विवाह-संस्कार होता है, चाहे उसका करते हुए अभीष्ट देवों तथा पितरों को अर्पित करना गर्भ ज्ञात हो अथवा अज्ञात, उससे विवाह करने वाले का चाहिए। व्रती को पके हुए धान्य को दही में मिलाकर ही वह गर्भ होता है । जन्म लेने पर गर्भस्थ बालक उसका खा लेना चाहिए। तदुपरान्त उत्सव का आयोजन होना सहोढ पुत्र कहलाता है ।] चाहिए।
सांवत्सर-वर्ष से सम्बन्ध रखने वाला । वर्ष (काल) सहधर्मिणी-वैदिक विधान से ब्याही हई पत्नी। इसका
सम्बन्धी शास्त्र का जो अध्ययन करता है उसको 'सांवत्सर' शाब्दिक अर्थ है 'साथ धर्मकार्य करनेवाली ।'
(ज्योतिषी अथवा गणक) कहते हैं । बृहत्संता (३.१०-११) सहमरण-पति के मरने पर पत्नी द्वारा उसकी चिता पर
में इसकी उपयोगिता के बारे में निम्नलिखित कथन है : साथ जल जाना । अङ्गिरा ने सहमरण का बड़ा माहात्म्य
मुहूर्त तिथिनक्षत्रमृतवश्चायने तथा । बतलाया है (अं० स्मृति)।
सर्वाण्येवाकुलानि स्युन स्यात् सांवत्सरो यदि ।। सहस्रधारा-देवता को स्नान कराने के लिए सहस्र छिद्र- तस्माद्राज्ञाभिगन्तव्यो विद्वान् सांवत्सरोऽग्रणी। युक्त पात्र से निकली हुई जलधाराओं को सहस्रधारा कहते जयं यशः थियं भोगान् श्रेयश्च समभीप्सता ।। हैं । दुर्गोत्सवपद्धति में इसका उल्लेख है ।
[ यदि सांवत्सर (ज्योतिषी) न होवे तो मुहूर्त, निथि, मान्धाता-माहेश्वर तीर्थ में नर्मदा नदी का नाम भी नक्षत्र, ऋतु तथा अयन सभी व्याकुल हो जाते हैं। इस. सहस्रधारा है। कथा है कि सहस्रार्जुन कार्तवीर्य ने अपनी लिए जय, यश, श्री, भोग और श्रेय की कामना करने सहस्रभुजाओं से नर्मदा के प्रवाह को रोकना चाहा । नर्मदा वाले राजा को अग्रणी सांवत्सर के पास जाना चाहिए। उसकी अवहेलना कर सहस्रधाराओं से फूट निकलीं। इस- सांवत्सरिक-पितरों के लिये प्रतिवर्ष किया जाता श्राद्ध । लिए वहाँ उनका नाम सहस्रधारा पड़ा गया ।
हेमाद्रि का कथन है : सहस्रनयन (सहस्रनेत्र)-इन्द्र, जिसके सहस्रनयन हैं । वास्तव पूणे संवत्सरे श्राद्धं षोडशं परिकीर्तितम् । में इन्द्र राजा का प्रतीक है और नेत्र उसके मन्त्रियों का । तेनैव च सपिण्डत्वं तेनैवाब्दिकमिष्यते ।। इन्द्र के एक सहस्र मन्त्री थे, अतः उसको सहस्रनयन कहते साक्षी-(१) आत्मा को साक्षी कहा गया है। वह प्रकृति हैं । परन्तु पुराणकथा में वह शरीरतः सहस्रनयन चित्रित के धरातल पर घटित होने वाली क्रियाओं को देखता है, किया गया है।
इस लिए साक्षी कहलाता है। सहस्र भोजनविधि-एक सहस्र ब्राह्मणों को भोजन कराने (२) धर्मशास्त्र में किसी वाद के निर्णय करने में चार की विधि । व्रती इसका आयोजन स्वगृह में अथवा किसी प्रमाण माने गये हैं, जिनमें साक्षी का स्थान तीसरा हैमन्दिर में करे। पक्वान्न से तथा परिष्कृत नवनीत से (१) लिखित (२) युक्ति (३) साक्षी और (४) दिव्य । भगवान् के बारह नामों का उच्चारण करते हुए (जैसे साक्षी वह है जो अपनी आँखों से (अक्षणा सह) वादग्रस्त केशव, नारायण आदि) हवन करना चाहिए। ब्रह्म भोज तथ्यों को देख चुका हो। साक्षी के मिथ्याकथन अथवा के बाद भिन्न-भिन्न प्रकार की दान-दक्षिणा दी जानी अकथन में बहुत दोष माना गया है। ब्रह्मवैवर्त पुराण चाहिए।
(प्रकृतिखण्ड, ४९ अध्याय) में मिथ्या साक्ष्य के निम्नांकित सहोढ-बारह प्रकार के पुत्रों में से एक जो माता के विवाह
परिणाम बतलाये गये हैं : के समय गर्भ में रहता है । वह विवाह के पश्चात् जन्म लेने मिथ्या साक्ष्यं यो ददाति कामात् क्रोधात् तथा भयात् । पर विवाह करने वाले पिता का पुत्र होता है। प्राचीन सभायां पाक्षिक वक्ति स कृतघ्न इति स्मृतः ।। काल में ऐसी विधिक मान्यता थी। मनुस्मृति (अध्याय ८) मिथ्या साक्ष्यं पाक्षिकं वा भारते बक्ति योनृप । में सहोढ की परिभाषा इस प्रकार दो हुई है :
यावदिन्द्रसहस्रञ्च सर्पकुण्डे वसेद् ध्रुवम् ।। या गमिणी संस्क्रियते ज्ञाताज्ञातापि या सती ।
सन्ततं वेष्टितैः सर्भीतश्च भक्षितस्तथा । बोढ़ः स गर्भो भवति सहोढ इति चोच्यते ।।
भुङ्क्ते च सर्पविण्मूत्रं यमदूतेन ताडितः ।।
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