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सेतु-सेवा
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"प्रकृतेर्महान् ततोऽहंकारः तस्मादगणश्च षोडशकः । प्रस्तुत करते हैं । कोई कहता है, परमेश्वर ने सर्जन द्वारा तस्मादपि षोडशकात् पञ्चभ्यः पञ्च भूतानि ।।" अपनी विभूति प्रकट की है। किसी के मतमें जिस प्रकार ___ अर्थात् सर्वप्रथम प्रकृति से महत् तत्त्व ( बुद्धि ) का स्वप्न बिना विचारे ही अकस्मात् उत्पन्न होता है, उसी आविर्भाव होता है, इसके अनन्तर अहंकार और उससे प्रकार जगत् भी अकस्मात् आविर्भूत हुआ। अन्य लोग षोडश गण उत्पन्न होते हैं । षोडश गणों से पंचीकरण जगत् को परमात्मा का क्रीडनक कहते हैं । किन्तु ये सभी द्वारा पञ्चमहाभूत बन जाते हैं, प्रकृति की परिणामधर्मता उत्तर भ्रममूलक हैं। क्योंकि आप्तकाम पूर्ण परमात्मा के अनुसार समस्तसृष्टि आगे चलकर तीन भागों में को कोई भी स्पहा स्पर्श नहीं कर सकती। सृष्टि केवल विभक्त होती है, आध्यात्मिक, आधिभौतिक एवं आधि- स्वाभाविक रूप में ही उत्पन्न होती है। जिस प्रकार दैविक । इनमें आधिभौतिक सृष्टि स्थावर, जङ्गम, स्वेदज, मकड़ी बिना किसी प्रयोजन के ही तन्तुसमूह को फैलाती है जरायज, अण्डज आदि के रूप में सजित है । अतः इसे जन्म एव सिकोड़ लेती है एवं पृथ्वी पर बिना कारण ही और मृत्यु नाम से भी व्यवहृत करते हैं ।
औषधियाँ प्रादुर्भत होती है तथा मनुष्यों के शरीर में __ आध्यात्मिकी सृष्टि अनादि और अनन्त है। प्रकृति निष्कारण ही बाल और रोम उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार भी आदि और अन्त से रहित है । अतः हम अनाद्यनन्त उस अक्षर ज्योतिर्मय ब्रह्म से समस्त विश्व उत्पन्न होता परमेश्वर की परम महाशक्ति से उद्भूत होने के कारण है। अतः यह समस्त सृष्टि स्वाभाविक है। अनाद्यनन्ता आध्यात्मिकी सृष्टि की नित्य सत्ता को स्वी- सेतु-जल के ऊपर से जाने के लिए बनाया गया मार्ग । कार करते हैं। यही आध्यात्मिक सृष्टि अनन्त कोटि इसके दान का महत् फल बतलाया गया है : ब्रह्माण्डमय विराट् पुरुष का विग्रह है । श्रुति के अनुसार सेतुप्रदानादिन्द्रस्य लोकमाप्नोति मानवः । इस ब्रह्माण्ड के चारों ओर इस प्रकार के अनन्त ब्रह्माण्ड
प्रपाप्रदानाद्वरुणलोकमाप्नोत्यसंशयम् ।। प्रकाशित है । और उन सभी ब्रह्माण्डों में सत्त्व, रजस्,
संक्रमाणान्तु यः कर्ता स स्वर्ग तरते नरः । तमः प्रधान ईश्वरांश स्वरूप अनन्त कोटि ब्रह्मा, विष्णु
स्वर्गलोके च निवसेदिष्टकासेतुकृत् सदा ॥ एवं रुद्र वास करते हैं । ये अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड आकाश
(मठादि प्रतिष्ठातत्त्व) में इसी प्रकार भ्रमण करते हैं, जिस प्रकार समुद्र में
[मानव सेतु-प्रदान से इन्द्रलोक को प्राप्त करता है । अनन्त मत्स्य एवं जल बुद्बुद भ्रमणशील रहते हैं।
प्याऊ की व्यवस्था करने से वह वरुण लोक को जाता इस प्रकार व्यापक परमेश्वर की सत् चित् सत्ता के
है। जो संक्रमणों (बाँध) का निर्माण करता है वह स्वर्ग आश्रय से महाशक्ति प्रकृति की स्वाभाविक त्रिगुणमय
में निवास करता है । आध्यात्मिक सृष्टि का अनन्त विस्तार हो रहा है, जिसकी सेवा-सेवा का महत्त्व सभी धर्मों में स्वीकार किया गया न उत्पत्ति ही है, और न नाश ही
है। वैष्णव धर्म में इसको साधना के रूप में माना गया आधिदैविक सृष्टि आध्यात्मिक सृष्टि से सर्वथा भिन्न है। वैष्णव संहिताएं, जो वैष्णव धर्म के कल्पसूत्र हैं, है। इसका सम्बन्ध एक एक ब्रह्माड से रहता है। यह सम्पूर्ण वैष्णव शिक्षा को चार भागों में बाँटती हैं : सृष्टि अनित्य या नश्वर होती है, इसकी उत्पत्ति, स्थिति १. ज्ञानपाद (दार्शनिक धर्म विज्ञान), एवं प्रलय हुआ करते हैं। जिस प्रकार महासागर की २ योगपाद (मनोवैज्ञानिक अभ्यास) तरंगें एक साथ सहसा नष्ट नहीं होतीं, उसी प्रकार आधि- ३. क्रियापाद (लोकोपकारी पूर्त कर्म) और दैविक सृष्टि के अन्तर्गत एक एक ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, ४. चर्यापाद (धार्मिक कृत्य)। निश्चित समयतक उसकी स्थिति और प्रलय होते हैं।
क्रियापाद को क्रियायोग भी कहते हैं। क्रियापाद सृष्टि के सम्बन्ध में कहा जाता है कि यह क्यों होती और चर्यापाद के अन्तर्गत सेवा का समावेश है। भक्तिहै ? ईश्वर ने किसलिए इस दुःखमय संसार का सर्जन मार्ग में, विशेषकर वल्लभ-सम्प्रदाय में, भगवान कृष्ण की किया। इत्यादि अनेक प्रकार के प्रश्न किये जाते हैं, और सेवा का विस्तृत विधान है। आचार्य वल्लभ द्वारा प्रचउनके उत्तर में अनेक मस्तिष्क विभिन्न प्रकार के समाधान लित पुष्टिमार्ग का दूसरा नाम ही 'सेवा' है। पुराणों में
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