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सम्प्रदाय-सरस्वती
सम्प्रदाय-गुरुपरम्परागत अथवा आचार्यपरम्परागत सरमा--देवशुनी ( देवताओं की कुतिया ) का नाम । वैदिक संघटित संस्था। भरत के अनुसार शिष्टपरम्परा प्राप्त पुराकथा में इसका काम मार्ग निर्देश करना है । इसके पुत्रों उपदेश ही सम्प्रदाय है। इसका प्रचलित अर्थ है 'गुरु- को सारमेय कहा गया है। इसकी व्युत्पत्ति है 'रमया परम्परा से सदुपदिष्ट व्यक्तियों का समूह ।' पद्मपुराण में शोभया सह वर्तमाना।' विभीषण की पत्नी राक्षसी का वैष्णव सम्प्रदायों की नामावली दी हुई है :
नाम भी सरमा है । जो सीता की सेविका थी। कश्यप की सम्प्रदायविहीना ये मन्त्रास्ते निष्फला मताः ।
एक पत्नी का नाम भी सरमा है जिससे भ्रमर आदि की अतः कलौ भविष्यन्ति चत्वारः सम्प्रदायिनः ।।
उत्पत्ति हुई। श्रीमध्व-रुद्र-सनका वैष्णवाः क्षितिपावनाः ॥
सरयू---अवध प्रदेश की एक नदी । इसके किनारे अयोध्या शक्तिसंगम तन्त्र (प्रथम खण्ड, अष्टम पटल) में
पुरी स्थित है जो सूर्यवंशी राजाओं की राजधानी थी और सम्प्रदायों की सूची इस प्रकार दी हुई है :
जहाँ भगवान् राम का जन्म हुआ था। इसलिये वैष्णववैखानः सामवेदादौ श्री राधावल्लभी तथा ।
सम्प्रदाय में इसका और भी महत्त्व है। इसके जल का
गुण राजनिघण्ट में वर्णित है : गोकुलेशो महेशानि तथा वृन्दावनी भवेत् ॥ पाञ्चरात्र: पञ्चम: स्यात् षष्ठः श्रीवीरवैष्णवः ।
'सरयू सलिलं स्वादु बलपुष्टिप्रदायकम् ।'
सरवरिया-कान्यकुब्ज ब्राह्मणों की एक उपशाखा । पञ्चरामानन्दी हविष्याशी निम्बार्कश्च महेश्वरि ।।
गौड ब्राह्मणों-गौड, सारस्वत, कान्यकुब्ज, मैथिल और ततो भागवतो देवि दश भेदाः प्रकीर्तिताः ।
उत्कल में कोई स्वतन्त्र शाखा नहीं है। 'सरवरिया' शब्द शिखी मुण्डी जटी चैव द्वित्रिदण्डी क्रमेण च ।।
'सरयू पारीण' का अपभ्रंश है, जिसका अर्थ है 'सरयूएकदण्डी महेशानि वीरशंवस्तथैव च ।
नदी के ( उत्तर ) पार रहने वाला।' यह शुद्ध भौगोलिक सप्त पाशुपताः प्रोक्ताः दशधा वैष्णवा मताः ॥
नाम है। मध्य युग में वर्जनशीलता और संकीर्णता के सम्भल-उत्तर प्रदेशस्थ मुरादाबाद जिले में विष्ण का
कारण वर्णों और जातियों की छोटी-छोटी क्षेत्रीय शाखाएँ अवतार स्थल । कलियुग के अन्त में विष्णुयश ब्राह्मण के
और उपशाखायें बन गयीं। उन्हीं में से सरयूपारीण यहाँ इसी सम्भल में भगवान् कल्कि का अवतार होगा।
( सरवरिया) भी एक है। इस समय सरवरिया केवल सत्ययुग में इस स्थान का नाम सत्यव्रत था, त्रेता में
सरयू-पार में सीमित न रह कर देश के कई प्रान्तों में महगिरि, द्वापर में पिङ्गल और कलियुग में सम्भलपुर
फैले हए हैं। मध्य प्रदेश के छत्तीसगढ़ क्षेत्र में इनकी है। इसमें ६८ तीर्थ और १९ कूप हैं । यहाँ एक अति
बहुत बड़ी संख्या है जो अपने को 'छत्तीसगढ़ी' विशाल और प्राचीन मन्दिर है। इसके अतिरिक्त मुख्य
कहते हैं। तीन शिवलिङ्ग है-पूर्व में चन्द्रेश्वर, उत्तर में भुवनेश्वर
सरस्वती-(१) सर्वप्रथम ऋग्वेद में सरस्वती पवित्र नदी तथा दक्षिण में सम्भलेश्वर । प्रतिवर्ष कार्तिक शुक्ल
और क्रमशः नदी देवता और वाग्देवता के रूप में वर्णित चतुर्थी और पञ्चमी को यहाँ मेला लगता है और यात्री
हुई है। सरस्वती मूलतः शुतुद्रि ( सतलज) को एक इसकी परिक्रमा करते हैं ।
सहायक नदी थी। जब शुतुद्रि अपना मार्ग बदल कर सम्भोगव्रत-दो प्रतिपदाओं तथा पंचमी तिथियों को विपाशा ( व्यास ) में मिल गयी तो सरस्वती उसके पुराने उपवास का विधान है । व्रती को भगवान भास्कर में पेटे से बहती रही । यह राजस्थान के समुद्र में मिलती अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहिए । साथ ही वह स्वपत्नी थी। बड़ी वेगवती नदी के रूप में इसका वर्णन पाया के साथ शयन करते हुए भी प्रणयकेलि तथा अन्य विला- जाता है, जिसके किनारे राजा लोग और जन बसते थे, सादिक क्रियाओं का एक दम परित्याग कर दे । इस व्रत यज्ञ करते और मन्त्रों का गान करते थे। सरस्वती को के आचरण से सहस्रों वर्षों के तप के बराबर पुण्य प्राप्त आजकल घग्घर कहते है। सरस्वती और दृषद्वती के होता है। दे० कृत्यकल्पतरु ३.८८; हेमाद्रि, २.३९४ ।। बीच का प्रदेश ब्रह्मावर्त कहलाता था जो वैदिक ज्ञान एवं रामकृष्ण परमहंस एवं शारदा माता का चरित्र । और कर्मकाण्ड के लिए प्रसिद्ध था। सरस्वती देवी के
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