Book Title: Hindu Dharm Kosh
Author(s): Rajbali Pandey
Publisher: Utter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou

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Page 674
________________ समय यस्मिन् देशे निषीदन्ति विप्रा वेदविदस्त्रयः । राज्ञः प्रतिकृतो विद्वान्ब्राह्मणास्तां सभां विदुः ॥ [ जिस स्थान में तीन वेदविद् विप्र राजा के प्रति निधि विद्वान् ब्राह्मण बैठते है उसको सभा कहा गया है ] सभा का ही पर्याय परिषद् हैं : इसकी परिभाषा इस प्रकार है : विद्यो हैतुकस्ती निरुक्तो धर्मपाठकः । त्रयश्चाश्रमिणः पूर्वे परिषत् स्याद्दशावरा ।। [ तीन वेदपारग, हैतुक (सद्युक्तिव्यवहारी), तर्कशास्त्री, निरुक्त जाननेवाला धर्मशास्त्री, तथा तीन आश्रमियों के प्रतिनिधि-इन दसों से मिलकर दशावरा' परिषद् बनती है। ] कात्यायन ने सभा का लक्षण निम्नांकित प्रकार से क्रिया है: कुल-शील-वयो-वृत्त-वित्तवद्भिरधिष्ठितम् । वणिग्भिः स्यात् कतिपयैः कुलवृद्धैरधिष्ठितम् ॥ [ कुल, शील, वय, वृत्त तथा वित्तयुक्त सभ्यों एवं कुलवृद्ध कुछ वणिग-जनों से अधिष्ठित स्थान को सभा कहते हैं । ] सभा (राजसभा) में न्याय का वितरण होता था । अतः सभा के सदस्यों में सत्य और न्याय के गुणों की आवश्यकता पर जोर दिया जाता था। समय--(१) शपथ, आचार, करार अथवा आचारसंहिता । यथा : ऋषीणां समये नित्यं ये चरन्ति युधिष्ठिर । निश्चिताः सर्वधर्मज्ञास्तान् देवान् ब्राह्मणान् विदुः ।। (महाभारत, १३.९०.५०) धर्मशास्त्र में धर्म अथवा विधि के स्रोतों में समय की गणना है : 'धर्मज्ञसमयः प्रमाणम् ।' (२) आगमसिद्धान्तानुसार देवाराधना का एक रूप । 'समयाचार' जैसे तन्त्रों में इसका निरूपण हुआ है। समाधि-वह स्थिति, जिसमें सम्यक् प्रकार से मन का आधान (ठहराव) होता है। समाधि अष्टाङ्गयोग का अन्तिम अङ्ग है-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्या- हार, धारणा, ध्यान और समाधि । यह योग की चरम स्थिति है । पातञ्जल योगदर्शन में समाधि का विशद निरूपण है । चित्तवृत्ति का निरोध ही योग है अतः समाधि की अवस्था में चित्त की वृत्तियों का पूर्ण निरोध हो जाता है । ये चित्तवृत्तियाँ हैं-प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति ।। चित्तवृत्ति का निरोध वैराग्य और अभ्यास से होता है । निरोध की अवस्था के भेद से समाधि दो प्रकार की होती है-संप्रज्ञात समाधि और असंप्रज्ञात समाधि । संप्रज्ञात समाधि की स्थिति में चित्त किसी एक वस्तु पर एकाग्र रहता है । तब उसकी वही एकमात्र वृत्ति जागृत रहती है; अन्य सब वृत्तियाँ क्षीण होकर उसी में लीन हो जाती है । इसी वृत्ति में ध्यान लगाने से उसमें 'प्रज्ञा' का उदय होता है । इसी को संप्रज्ञात समाधि कहते हैं । इसका अन्य नाम 'सबीज समाधि' भी है। इसमें एक न एक आलम्बन बना रहता है और इस आलम्बन का भान भी । इस अवस्था में चित्त एकाग्र रहता है; यथार्थ तत्त्व को प्रकाशित करता है; क्लेशों का नाश करता है। कर्मजन्य बन्धनों को शिथिल करता है और निरोध के निकट पहुँचाता है। संप्रज्ञात समाधि के भी चार भेद हैं-(१) वितर्कानुगत (२) विचारानुगत (३) आनन्दानुगत और अस्मितानुगत । यद्यपि संप्रज्ञात समाधि में प्रज्ञा का उदय हो जाता है किन्तु इसमें आलम्बन बना रहता है और ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय का भेद भी लगा रहता है । असंप्रज्ञात समाधि में ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय का भेद मिट जाता है । इसमें तीनों भावनायें अत्यन्त एकीभूत हो जाती हैं । परम वैराग्य से सभी वृत्तियाँ पूर्णतः निरुद्ध हो जाती हैं । आलम्बन का अभाव हो जाता है। केवल संस्कारमात्र शेष रह जाता है । इसको 'निर्बीज समाधि' भी कहते हैं, क्योंकि इसमें क्लेश और कर्माशय का पूर्णत: अभाव रहता है । असंप्रज्ञात समाधि के भी दो भेद हैभवप्रत्यय तथा उपाय प्रत्यय । भवप्रत्यय में प्रज्ञा के उदय होने पर भी पूर्णज्ञान का उदय नहीं होता; अविद्या बनी रहती है । इसलिये उसमें संसार की ओर प्रवृत्त हो जाने की आशंका रहती है। उपाय प्रत्यय में अविद्या का सम्पूर्ण नाश हो जाता है और चित्त ज्ञान में समग्र रूप से प्रतिष्ठित हो जाता है; उसके पतन का भय सदा के लिये समाप्त हो जाता है। पुराणों में भी समाधि का विवेचन है। गरुडपुराण (अध्याय ४४) में समाधि का निम्नलिखित लक्षण पाया जाता है :. नित्यं शुद्धं बुद्धियुक्तं सत्यमानन्द मद्वयम् । तुरीयमक्षरं ब्रह्म अहमस्मि परं पदम् ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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