Book Title: Hindu Dharm Kosh
Author(s): Rajbali Pandey
Publisher: Utter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou

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Page 672
________________ ६५८ न व्यापारी नाश्रमी च सर्वकर्मविवर्जितः । ध्यायेन्नारायणं वत्स संन्यासीति कीर्तितः ॥ शश्वन्मौनी ब्रहाचारी सम्भाषालापवजितः । सर्वं ब्रह्ममयं पश्येत् स संन्यामीति कीर्तितः ॥ सर्वत्र समबुद्धिवच हिंसामायाविवजितः । क्रोधाहङ्काररहितः स संन्यासीति कीर्तितः ॥ अयाचितपस्थितश्च मिष्टामिष्टञ्च भुक्तवान् । न याचेत् भक्षणार्थी स संन्यासीति कीर्तितः ॥ न च पश्येत् मुखं स्त्रीणां न तिष्ठेतत्समीपतः । दारवीमपि दोषाञ्च न स्पृशेद्यः स भिक्षुकः ॥ [ सदन्न अथवा कदन्न में, लोष्ट्र अथवा काञ्चन में जिसकी समान वृद्धि रहती है वह संन्यासी कहलाता है। जो दण्ड, कमण्डल और रक्तवस्त्र धारण करता है और एक स्थान में न रहकर नित्य प्रवास में रहता हैं वह संन्यासी कहलाता है जो शुद्ध आचार वाले द्विज का अन खाता है, लोभादि से रहित होता है और किसी से कुछ माँगता नहीं, यह संन्यासी कहलाता है। जो व्यापार नहीं करता, जो प्रथम तीन आश्रमों का त्याग कर चुका है, सभी कर्मों में अनासक्त, सदा नारायण का ध्यान करता है, वह संन्यासी कहलाता है । सदा मौन रहनेवाला, ब्रह्मचारी, सम्भाषण और आलाप न करनेवाला और सब को ब्रह्ममय देखनेवाला होता है, वह संन्यासी कहलाता है । सर्वत्र समबुद्धि रखनेवाला, हिंसा और माया से रहित, कोप और अहं से मुक्त संन्यासी कहलाता है विना निमंत्रण के उपस्थित, मिष्ट- अमिष्ट का भोजन करनेवाला और भोजन के लिए कभी न मांगनेवाला संन्यासी कहलाता है जो स्त्री का मुख कभी नहीं देखता, न उनके समीप खड़ा होता है और काष्ठ की स्त्री को भी नहीं छूता, वह भिक्षुक ( सन्यासी ) है । ] Tosपुराण ( अध्याय ४९) में भी संन्यासी का धर्म वर्णित है तपसा कपितोऽत्यन्तं यस्तु ध्यानपरी भवेत् । संन्यासीह स विज्ञेयो वानप्रस्थाश्रमे स्थितः ॥ योगाभ्यासरतो नित्यमारुरुतेन्द्रियः । ज्ञानाय वर्तते भिक्षुः प्रोच्यते पारमेष्ठिकः ।। यस्त्वात्मरतिरेव स्यान्नित्यतृप्तो महामुनिः । सम्यक् च दमसम्पन्नः स योगी भिक्षुरुच्यते ॥ Jain Education International सपिण्ड सपिण्डीकरण भैक्ष्यं श्रुतञ्च मौनित्वं तपो ध्यानं विशेषतः । सम्यक् च ज्ञान-वैराग्ये धर्मोऽयं भिक्षुके मतः ॥ ज्ञानसंन्यासिनः केचिद् वेदसंन्यासिनोऽपरे । कर्मसंन्यासिनः केचित् त्रिविधः पारमेष्ठिकः । योगी च त्रिविधो ज्ञेयो भौतिकी मोक्ष एव च । तृतीयोऽन्त्याथमी प्रोतो योगमूर्तिसमाश्रितः ॥ प्रथमा भावना पूर्वे मोक्षे त्वक्षरभावना । तृतीये चान्तिमा प्रोक्ता भावना पारमेश्वरी ॥ यतीनां यतचित्तानां न्यासिमामूर्ध्वरेतसाम् । आनन्द ब्रह्म तत्स्वानं यस्मान्नावर्तते मुनिः ॥ योगिनाममृतं स्थानं व्योमाख्यं परमक्षरम् । आनन्दमैश्वरं यस्मान्मुक्तो नावर्तते नरः ॥ कूर्मपुराण (उपविभाग, अध्याय २७; यतिधर्मनामक अध्याय २८) में भी संन्यासी धर्म का विस्तार से वर्णन पाया जाता है । दे० 'आश्रम' | सपिण्ड - जिनके पिण्ड अथवा मूल पुरुष समान होते हैं वे आपस में सपिण्ड कहलाते हैं । सात पुरुष तक पिण्ड की ज्ञाति हैं । अशौच, विवाह और दाय के भेद से पिण्ड तीन प्रकार का होता है एक गोत्र में दान भोग एवं अन्य सम्बन्ध से अशौच-सपिण्ड सात पुरुष तक होता है। पिता तथा पितृ-बन्धु की अपेक्षा से सात पुरुष तक विवाहसपिण्ड होता है तथा मातामह एवं मातृत्व की अपेक्षा से पाँच पुरुष तक होता है । उद्वाह-तत्त्व नामक ग्रन्थ में नारद का निम्नांकित वचन उद्धृत है। पञ्चमात् सप्तमादूद्ध वं मातृतः पितृतः क्रमात् । सपिण्डता निवर्तेत सर्ववर्णेष्वयं विधिः ॥ दाय सपिण्ड तीन पुरुष तक ही होता है । वे तीन पुरुष हैं पिता, पितामह और प्रपितामह और उनके पुत्र पौत्र एवं प्रपौत्र दौहितृ । इसी प्रकार मातामह, प्रमातामह, और बुद्ध प्रमातामह और उनके पुत्र, पौष और प्रपौत्र । (दे० दायभाग) | मत्स्यपुराण में भीं सपिण्ड का विचार किया गया है । लेपभाजश्चतुर्थाद्याः पित्राद्याः पिण्डभागिनः । पिण्डदः सप्तमस्तेषां सापिण्ड्यं साप्तपौरुषम् ॥ सपिण्डीकरण-प्रेत को पूर्वज पितरों के साथ मिलाने वाला एक पिण्ड बाद इसमें प्रेतपिण्ड का तीन पितृपिण्डों के साथ मिश्रीकरण होता है कूर्मपुराण (उपविभाग, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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