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सन्ध्या
कर्मचारी थे। चैतन्य महाप्रभु से प्रभावित होने पर एक दिन सनातन के मन में संसार के प्रति वैराग्य उत्पन्न हुआ। एक दिन वे किसी सरकारी काम से कहीं जा रहे थे । बहुत जोर की आँधी आयी और आकाश बादलों से घिर गया । मार्ग में एक मेहतर दम्पति आपस में वार्तालाप करते हुए मिले | पत्नी पति को बाहर जाने से रोक रही थी। उसने पति से कहा, "ऐसे झंझावात में संकट के समय या तो दूसरे का नौकर बाहर जा सकता है अथवा कुत्ता।" सनातन गोस्वामी ने इस बात को सुनकर नौकरी छोड़ने का निश्चय किया। परन्तु यह बात नवाब को मालूम हो गयी और उसने सनातन को कारागार में डाल दिया । सनातन अपने को भगवान् के चरणों में समर्पित कर चुके थे। काराध्यक्ष को प्रसन्न कर एक दिन केवल एक कम्बल के साथ ये जेल के बाहर आ गये
और महाप्रभु चैतन्य की शरण में पहुँच गये । कम्बल देखकर महाप्रभु ने उदासीनता प्रकट की। इस पर सनातन ने कम्बल का भी त्याग कर दिया। वे अत्यन्त विरक्त होकर कृष्ण की आराधना में तल्लीन हो गये । जीवन के अन्तिम भाग में ये वृन्दावन में रहने लगे थे। इन्होंने गीतावली, वैष्णवतोषिणी, भागवतामृत और सिद्धान्तसार नामक गंभीर ग्रन्थों की रचना की। भागवतामृत में चैतन्य सम्प्रदाय के कर्तव्य और आचार का वर्णन है। हरिभक्तिविलास नामक ग्रन्थ भी इन्हीं के नाम से प्रसिद्ध है । इस ग्रन्थ में भगवान् के स्वरूप और उपासना का । वर्णन है । बंगला भाषा में भी इनका एक ग्रन्थ रसमयकलिका नाम से प्रचलित है । सनातन गोस्वामी अचिन्त्यभेदाभेद मत के मानने वाले थे और इनके ग्रन्थों का यही दर्शन है। सन्ध्या-एक धार्मिक क्रिया जो, हिन्दुओं का अनिवार्य कर्तव्य है। दिन और रात्रि की सन्धि में यह क्रिया की जाती है, इसलिए इसको सन्ध्या (सन्धिवेला में की हुई) कहते हैं । व्यास का कथन है :
उपास्ते सन्धिवेलायां निशाया दिवसस्य च । तामेव सन्ध्यां तस्मात्तु प्रवदन्ति मनीषिणः ।।
इसकी अन्य व्युत्पत्तियाँ भी पायी जाती हैं। यथा 'सम्यक ध्यायन्त्यस्यामिति ।' 'संदधातीति' । दिन और रात्रि को सन्धि के अतिरिक्त मध्याह्न को भी सन्धि माना जाता है । अतः तीन सन्ध्याओं में जो उपासना की जाती
है, उसका नाम (त्रिकाल) सन्ध्या है। इन कालों में उपास्य देवता का नाम भी सन्ध्या है।
सन्ध्या उपासना सभी के लिए आवश्यक है, किन्तु ब्राह्मण के लिए अनिवार्य है :
एतत् सन्ध्यात्रयं प्रोक्तं ब्राह्मण्यं यदधिष्ठितम् । यस्य नास्त्यादरस्तत्र न स ब्राह्मण उच्यते ।। अब्राह्मणास्तु षट् प्रोक्ता ऋषिणा तत्त्ववादिना । आद्यो राजभृतस्तेषां द्वितीयः क्रयविक्रयी । तृतीयो बहुयाज्यः स्याच्चतुर्थों ग्रामयाजकः । पञ्चमस्तु भृतस्तेषां ग्रामस्य नगरस्य च ।। अनागतान्तु यः पूर्वां सादित्याञ्चैव पश्चिमाम । नपासीत द्विजः सन्ध्यां स षष्ठोऽब्राह्मणः स्मृतम् ।।
(शातातप) [ तत्त्ववादी ऋषि द्वारा छः प्रकार के अब्राह्मण कहे गये हैं। उनमें से प्रथम राजसेवक है; दूसरा क्रय और विक्रय करने वाला है; तीसरा बहुतों का यज्ञ कराने वाला; चौथा ग्रामयाजक; पाँचवाँ ग्राम और नगर का भृत्य और छठा प्रात: और सायं सन्ध्या न करने वाला।] याज्ञवल्कय ने सन्ध्या का लक्षण इस प्रकार बतलाया है :
त्रयाणाञ्चैव वेदानां ब्रह्मादीनां समागमः । सन्धिः सर्वसुराणाञ्च तेन सन्ध्या प्रकीर्तिता ॥ [ऋक्, साम, यजुः तीनों वेदों और ब्रह्मा, विष्णु, शिव तीन मूर्तियों का इसमें समागम होता है । सभी देवताओं को इसमें सन्धि होती है, इसलिए यह सन्ध्या नाम से प्रसिद्ध है। ] संवर्तस्मृति में सन्ध्योपासना का उपक्रम इस प्रकार बतलाया गया है : प्रातःसन्ध्यां सनक्षत्रामुपासीत यथा विधि । सादित्यां पश्चिमा सन्ध्यामर्दास्तमितभास्कराम् ।।
प्रातःसन्ध्या की उपासना यथा विधि नक्षत्र सहित (थोड़ी रात रहते) करनी चाहिए । सायं सन्ध्या आधे अस्त सूर्य के साथ होनी चाहिए । ] मध्याह्न सन्ध्या के लिए आठवाँ मुहुर्त उपयुक्त बतलाया गया है : 'समसूर्येऽपि मध्याह्न महर्ते सप्तमोपरि ।' सांख्यायनगृह्यसूत्र में सन्ध्या का निम्नांकित विधान है : "अरण्ये समित्पाणिः सन्ध्या मुपास्ते नित्यं वाग्यत उत्तरापराभिमुखोऽन्वष्टमदिशम्आनक्षत्रदर्शनात् । अतिक्रान्तायां महाव्याहृती: सावित्री स्वस्त्ययनादि जप्त्वा एवं प्रातः प्राङ्मुखस्तिष्ठन् आमण्डलदर्शनादिति ।
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