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सदाचार
परम्पराएँ प्रचलित होती हैं, वे देशाचार कहलाती हैं । इसी प्रकार विभिन्न जातियों में भी अपने-अपने विशिष्ट आचार होते हैं, जो जात्याचार कहलाते है। जाति के भीतर विभिन्न कुलों में भी अपने-अपने विशेष आचार होते हैं, जिनको कुलाचार कहते हैं । ये श्रुति स्मृतियों में विहित विधान के अतिरिक्त होते हैं। कालमानित और बहुमानित होने के कारण ये प्रमाण माने जाते हैं, यद्यपि श्रुति स्मृतियों से अविरुद्ध होने की इनसे अपेक्षा की जाती है।
सदाचार के प्रामाण्य पर कुमारिल द्वारा तन्त्रवार्तिक ( जैमिनि, १ ३.७ ) में विस्तार से विचार किया गया है। इसके अनुसार वे ही प्रथाएँ सदाचार के अन्तर्गत आती हैं जो श्रुति के स्पष्ट पाठ के अविरुद्ध होती हैं, जिनका आचरण शिष्ट इस विश्वास से करते हैं कि उनका पालन करना धर्म है, जिनका कोई इष्ट फल ( काम अथवा लोभ) नहीं होता है । शिष्ट भी वे ही होते हैं जो स्पष्ट श्रुतिविहित कर्तव्यों का स्वेच्छा से अपने आप पालन करते हैं; वे नहीं जो तथाकथित सदाचार का पालन करते हैं । यदि ऐसा न हो तो शिष्टता वाग्जाल के चक्र में पड़ जायेगी । इसलिए परम्परागत और पीढ़ी दर पीढ़ी से चली आने वाली प्रथाओं का शिष्टों द्वारा इस बुद्धि से पालन कि वे धर्म के अङ्ग है, वस्तुतः धर्म हैं और इससे स्वर्ग की प्राप्ति होती है :
दुष्टकारणहीनानि यानि कर्माणि प्रयुक्तानि प्रतीयेरन् धर्मत्वेनेह शरीरस्थितये यानि सुखार्थं वा प्रयुञ्जते । अर्थार्थ वा न वस्ति शिष्टानामेव धर्मधीः ॥ धर्मत्वेन प्रपन्नानि निष्टेर्यानि तु कानिचित् । वैदिकैः कर्मसामान्यात्तेषां धर्मत्वमिष्यते ॥ नैव तेषां सदाचारनिमित्ता शिष्टता मता । साक्षाद्विहितकारित्वाच्छिष्टत्वे सति तद्वचः ।। प्रत्यक्ष वेदविहितक्रियया हि लब्धशिष्टत्वव्यपदेशा यत्परम्पराप्राप्तमम्यदपि धर्मबुद्ध्या कुर्वन्ति तदपि स्वयंत्वाद्धरूपमेव । (वार्तिक, पृ० २०५ २०६ ) ।
केवल महान् पुरुषों का आचरण मात्र सदाचार नहीं हैं, क्योंकि उनके जीवन में कई कर्म धर्मविरुद्ध होते हैं, जिनका आचरण सामान्य पुरुषों को नहीं करना चाहिए:
साधुभिः । तान्यपि ।।
दृष्टो धर्मव्यतिक्रमः साहसं च महताम् । अवरदौर्बल्यात् (गौतम धर्म० १. ३-४ )
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दृष्टी धर्मव्यतिक्रमः साहसं च पूर्वषाम् । तेषां तेजोविशेषेण प्रत्यवायो न विद्यते । तदन्वीक्ष्य प्रयुञ्जानः सीदत्यवरः ।।
(आप० धर्म० २.६.१३.७-९) कुमारिल ने तन्त्रवार्तिक ( जैमिनि ३.३.१४) में सदाचार के बाधों पर भी विचार दिया है। यदि किसी आचार और स्मृति में विरोध हो तो आचार स्मृति से बाधित होता है एक आचार दूसरे अधिक अभियुक्ततर ( श्रेष्ठ द्वारा प्रयुक्त) आचार से संदिग्ध आचार असंदिग्ध आचार से बाधित होता है आदि (स्मृत्याप्याचारः सोऽप्यभियुक्तराचारेण संदिग्धमसंदिग्धेन) ।
सदाचार के मीमांसक मूल्यांकन से कुछ स्मृतिकारों ने अपना मतभेद प्रकट किया है। किसी आचार को राज्य द्वारा इसलिए अमान्य नहीं कर देना चाहिए कि उसका स्मृति द्वारा विरोध है। ऐसे आचार का विरोध शुद्ध धार्मिक दृष्टि से है, व्यावहारिक (विधिक) दृष्टि से नहीं । किसी आचार के प्रामाणिक होने के लिए यह पर्याप्त हैं कि वह चिरकालमानित और बहुमानित है। बृहस्पति का कथन है "देशाचार, जात्याचार और कुलाचार का, जहाँ भी वे प्राचीन काल से प्रचलित हों, उसी प्रकार आदर करना चाहिए। नहीं तो प्रजा में क्षोभ उत्पन्न होता है; राजा के बल और कोष का नाश होता है । ऐसे आचार के पालन से प्रजा प्रायश्चित अथवा दण्ड की भागी नहीं होती
देशजातिकुलानाञ्च ये धर्माः प्राक्प्रवर्तिताः । तथैव ते पालनीयाः प्रजा प्रक्षुभ्यते यथा ॥ जनावरक्तिर्भवति वलं कोषञ्च नश्यति । अनेन कर्मणा ते प्रायश्चित्तदमाहंकाः ॥
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(बृहस्पति) साधु पुरुषों के आचरण को सदाचार कहते हैं। मनुस्मृति में ब्रह्मावर्त के निवासियों के आचार को सदाचार बतलाया गया है :
सरस्वतीदृषद्वत्यो वनयोर्यदन्तरम् । तवनिर्मितं देशं ब्रह्मावर्त प्रचक्षते ॥ तस्मिन् देशे य आचारः पारम्पर्यक्रमागतः । वर्णानां सान्तरालानां सदाचारः स उच्चते ॥ [देवनदी सरस्वती और दृषद्वती के बीच में जो अन्तराल है वह देवताओं से निर्मित देश ब्रह्मावर्त कहलाता
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