Book Title: Hindu Dharm Kosh
Author(s): Rajbali Pandey
Publisher: Utter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou

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Page 666
________________ ६५२ सत्र सदाचार इसके पश्चात् पौराणिक तथा तान्त्रिक हिन्दू धर्म तथा संसार के अन्यान्य धर्मों की कड़। समीक्षा की गयी है। दे० 'आर्य समाज'। सत्र-यज्ञ का पर्याय । भागवत पुराण (१.१) में यज्ञ के अर्थ में ही इसका प्रयोग हुआ है। नैमिषेऽनिमिषक्षेत्र ऋषयः शौनकादयः । सत्रं स्वर्गाय लोकाय सहस्रसममासत ॥ कलिमागतमाज्ञाय क्षेत्रेऽस्मिन्वणवे वयम् । आसीना दीर्घसत्रेण कथायां सक्षणा हरेः ।। [अनिमिषक्षेत्र नैमिषारण्य में शौनक आदि ऋषियों ने स्वर्ग की प्राप्ति और लोक कल्याण के लिए सहस्रों वर्ष का सत्र (यज्ञ) किया। कलि को आया हुआ जानकर इस वैष्णव क्षेत्र में हम लोग दीर्घ सत्र (यज्ञ) करते हुए भगवत्था में समय बिताने लगे । ] सत्राजित्-कृष्ण की पत्नी सत्यभामा के पिता । सत्वत्-यदुवंश के एक प्राचीन राजा, जिनसे सात्वत वंश चला। वे अंशु के पुत्र थे। सात्वतों में ही वैष्णवों का भागवत सम्प्रदाय प्रारम्भ में विकसित हुआ, अतः इसे सात्वत सम्प्रदाय भी कहते हैं। सत्वत् के पुत्र सात्वत ने नारद से भागवत धर्म का उपदेश ग्रहण किया (दे० कुर्म पुराण)। इस धर्म की विशेषता थी निष्काम कर्म और वासुदेव की आराधना । ज्ञान, कर्म और भक्ति के समुच्चय अथवा समन्वय के सात्वत लोग समर्थक थे । सदन-स्वामी रामानन्द के पूर्व रामावत सम्प्रदाय मे कई सन्त आचार्य हुए । इनमें नामदेव और त्रिलोचन महाराष्ट्र में तथा सदन और बेनी तर भारत में हए थे। सदन ने हिन्दी में अपने पदों की रचना की। राय बालेश्वर प्रसाद ने सन्तबानी-संग्रह सन् १९१५ में बेल्बेडियर प्रेस इलाहाबाद से प्रकाशित कराया था। उसमें सदन के पद संगृहीत हैं। सदावार--धर्म के अनेक स्रोतों में से एक । इसको धर्मसूत्रों में शील, सामयाचारिक अथवा शिष्टाचार कहा गया है और स्मतियों में आचार अथवा सदाचार । धर्म के स्रोतों कीगणना निम्नांकित प्रकार है : वेदो धर्ममूलम् । तद्विदाञ्च स्मृतिशीले । (गौ० ५० १.१-२) अथातः सामयाचारिकान्धर्मान् व्याख्यास्यामः । धर्मज्ञसमयः प्रमाणम् वेदाश्च । (आप० धर्म० १.१.१-३) श्रुतिस्मतिविहितो धर्मः । तदलामे शिष्टाचारः प्रमाणम् । शिष्टः पुनर कामात्म्म । अगृह्यमाणकारणो धर्मः ।। (वसिष्ठधर्म० १. ४-७) श्रुतिः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः । सम्यक्संकल्पनः कामोः धर्ममूलमिदं स्मृतम् ।। (याज्ञ० १.७) वेदोऽखिलो धर्ममूलं स्मतिशीले च तद्विदाम् । आचारश्चैव साधूनामात्मनस्तुष्टिरेव च ।। (मनु १.६) आपस्तम्ब धर्मसूत्र के भाष्य में हरदत्त सामयाचारिक की व्याख्या इस प्रकार करते हैं : पौरुषेयी व्यवस्था समयः, सच fविधः, विधिनियमः, प्रतिषेधश्चेति । समयमूला आचाराः, तेषु भवाः सामयाचारिकाः, एवंभूतान् धर्मानिति । कर्मजन्योऽभ्युदयनिःश्रेयसहेतुरपूर्वाख्य आत्मगुणो धर्मः । [ पौरुषेयी व्यवस्था को समय कहते है, वह तीन प्रकार का होता है-(१) विधि (२) नियम और (1) प्रतिषेध । आचारों का मूल समय में होता है। उनमें उत्पन्न होने के कारण वे सामयाचारिक कहलाते है। अर्थात् इस प्रकार से उत्पन्न हुए धर्म । कम से उत्पन्न, अभ्युदयनिःश्रेयस का कारणभूत अपूर्व नामक आत्मा का गुण धर्म है ।] वसिष्ठधर्मसूत्र में शिष्ट की परिभाषा दी गयी है : शिष्टः पुनरकामात्मा । [शिष्ट वह है जो (स्वार्थमय) कामनाओं से रहित हो] अकामात्मा का ही आचार प्रमाण माना जा सकता है । मनु ने शील और आचार में थोड़ा भेद किया है । कुल्लूक के अनुसार शील नैतिक गुणों को कहते है, जैसे विद्याप्रेम, देवभक्ति, पितृभक्ति आदि; आचार वह है जो अनुबन्ध अथवा परम्परा पर आधारित हो। श्रुति तथा स्मृति और आचार की प्रामाणिकता में भी अन्तर है। प्रथम दो धर्म के मौलिक प्रमाण है, जब कि आचार सहायक प्रमाण है। सदाचार अथवा आचार तीन प्रकार का होता है : (१) देशाचार (२) जात्याचार और (३) कुलाचार । भिन्न-भिन्न प्रदेशों में विभिन्न आचार, प्रथायें और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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