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सतीर्थ-सत्यभामा सत्य-तीनो कालों में जो एक समान रहे (त्रिकालाबाध्य), परमात्मा (सत्यं ज्ञानमनन्तं) । इसका प्रयोग कृतयुग, शपथ एवं यथार्थ के अर्थ में प्रायः होता है। इसके अन्य पर्याय हैं, तथ्य, ऋत सम्यक्, अवितथ, भूत आदि । पद्मपुराण (क्रियायोगसार, अध्याय १६) में सत्य का लक्षण इस प्रकार है :
यथार्थकथनं यच्च सर्वलोकसुखप्रदम् ।
तत्सत्यमिति विज्ञेयमसत्यं तद्विपर्ययम् ।। सांख्य दर्शन में इससे मिलता-जुलता सत्य का लक्षण बतलाया गया है : 'अत्यन्तलोकहितम् सत्यम् ।' महाभारत (राजधर्म) में सत्य का आकार निम्नांकित प्रकार से बतलाया गया है :
सत्यञ्च समता चैव दमश्चैव न संशयः । अमात्सर्य क्षमा चैव ह्रीस्तितिक्षानसूयाता ॥ त्यागो ध्यानमथार्यत्वं धृतिश्च सततं दया ।
अहिंसा चैव राजेन्द्र सत्याकारास्त्रयोदश । पुराणों में सत्य का माहात्म्य बड़े विस्तार से वणित है। गरुडपुराण (अध्याय ११५ ) में सत्य की प्रशंसा है। इस प्रकार है:
तियों में ब्राह्मण विधवाओं के सती होने का स्पष्ट निषेध किया गया है ( मिताक्षारा, याज्ञ० १.८६ के भाष्य में उद्धृत )। यूनानी लेखकों ने, जो सिकन्दर के साथ भारत में आये थे, इस बात का उल्लेख किया है कि पंजाब की कठ जाति में सती प्रथा प्रचलित थी ( स्ट्रैबो, १५.१. ३०.६२ )। परन्तु यह प्रथा बहुप्रचलित नहीं थी।
सती प्रथा की पवित्रता और उपयोगिता के सम्बन्ध में धर्मशास्त्रकारों में सदा मतभेद रहा है। मेधातिथि ने मनुस्मृति ( ५.१५७ ) पर भाष्य करते हुए सती प्रथा की तुलना श्येनयाग से की है जो एक प्रकार का अभिचार (जादू-टोना ) था। मेधातिथि तथा कुछ अन्य टीकाकारों ने इसकी तुलना आत्महत्या से की है और इसे गहित बतलाया है । इसके विपरीत मिताक्षरा के रचयिता विज्ञानेश्वर तथा अन्यों ने सती प्रथा का समर्थन किया है। ___ सम्पूर्ण मध्ययुग में यह प्रथा विशेषतः राजपूतों में प्रचलित थी । मुसलमानों के आक्रमण से इसको और प्रोत्साहन मिला। अकबर ने अपने सुधारवादी शासन में सती
ता प्रथा को बन्द करना चाहा, परन्तु यह बन्द न हुई । आधु- निक युग में भी बनी रही। बंगाल में इसका सर्वाधिक प्रचार था । इसका कारण यह था कि वहाँ दाय भाग के अनुसार पत्नी को पति की मृत्यु के पश्चात् संयुक्त पारिवारिक सम्पत्ति में पूर्ण अधिकार प्राप्त था। इसलिए परिबारवाले यही चाहते थे कि विधवा मृत पति के साथ सती हो जाय । इसमें छल और बल प्रयोग भी होने लगा। राजा राममोहन राय के प्रयत्नों से लार्ड विलियम बेंटिङ्ग के शासन-काल (१८२९ ई० ) में सतीप्रथा भारत में निषिद्ध कर दी गयी। सतीर्थ-सहपाठी अर्थात् गुरुभाई। समान गुरु से पढ़े हुए
परस्पर सतीर्थ कहलाते हैं। सत्कार-पूजा अथवा आवभगत । व्यवहारतत्त्व के अनुसार सभा में सभासद् जिस प्रकार बैठते हैं, उठते हैं, तथा दानमान आदि प्राप्त करते हैं, उसे सत्कार कहा जाता है। सत्क्रिया-शवदाहादि संस्कार को सक्रिया कहा जाता है । शब्दरत्नावली में 'संस्कार' के अर्थ में सक्रिया का प्रयोग हुआ है । महाभारत ( १.४४.५ 'प्रयुज्य सर्वाः परलोकसक्रियाः ।') में अन्त्येष्टि के अर्थ में ही यह शब्द प्रयुक्त हुआ है।
न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा न ते वृद्धा ये न वदन्ति सत्यम् । नाऽसौ धर्मो यत्र न सत्यमस्ति
न तत्सत्यं यच्छलेनानुविद्धम् ॥ सत्यनारायण-ईश्वर का एक पर्याय । इसका अर्थ है 'सत्य ही नारायण (भगवान्) है।' सत्यनारायण की व्रतकथा बहुत ही प्रचलित है। यह स्कन्द पुराण के रेवाखण्ड में वणित कही जाती है। प्रायः पूर्णिमा को सत्यनारायणव्रतकथा कहने का प्रचलन है। यद्यपि कलियुग में सत्यनारायण की पूजा विशेष फलदायक कही जाती है. किन्तु सत्य के नाम से नारायण का अवतार और पूजा-उपासना सत्ययुग से ही चली आ रही है :
धर्मस्य सूनृतायां तु भगवान् पुरुषोत्तमः । सत्यसेन इति ख्यातो जातः सन्यवतैः सह ।। सोऽनृतवतदुःशीलानसतो यक्षराक्षसान् । भूतद्रुहो भूतगणांस्त्ववधीत् सत्यजित्सखः ।।
(भागवत, ८.१.२५-२६) सत्यभामा-कृष्ण की आठ पटरानियों में द्वितीय । पद्मपुराण (उत्तर खण्ड, अध्याय ६९) में इन आठों के नाम इस
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