Book Title: Hindu Dharm Kosh
Author(s): Rajbali Pandey
Publisher: Utter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou

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Page 631
________________ शङ्कराचार्य जयन्ती शतपथब्राह्मण शिष्यपरम्परा - शंकरानुगत संन्यासियों का भी एक विशेष सम्प्रदाय चला जो दसनामी कहलाते हैं । शङ्कराचार्य के चार प्रधान शिष्य थे : पद्मपाद, हस्तामलक, सुरेश्वर और त्रोटक । इनमें से पद्मपाद के शिष्य थे तीर्थ और आश्रम । हस्तामलक के शिष्य वन और अरण्य थे । सुरेश्वर के गिरि, पर्वत और सागर तीन शिष्य थे। त्रोटक के भी तीन शिष्य पुरी, भारती और सरस्वती थे । इन्हीं दस शिष्यों के नाम से संन्यासियों के दस भेद चले | शङ्कराचार्य ने भारत की चारों दिशाओं में चार मठ स्थापित किये जिनमें इन दस प्रतिष्यों की परम्परा चली आती है। पुरी, भारती और सरस्वती की परम्परा शृंगेरी मठ के अन्तर्गत है । तीर्थ और आश्रम शारदामठ (द्वारका) के अन्तर्गत हैं । वन और अरण्य गोवर्धनमठ (पुरी) के अन्तर्गत हैं । गिरि, पर्वत और सागर ज्योतिर्मठ ( जोशीमठ) के अन्तर्गत हैं । प्रत्येक दसनामी संन्यासी इन्हीं चार मठों में किसी न किसी से संबन्धित होता है स्वामी के शिष्य संवासियों ने बौद्ध भिक्षुओं की तरह घूम-घूमकर सनातन धर्म के इस महाजागरण में बड़ी सहायता पहुँचायी । उनके चारों मठों में गद्दी पर बैठने वाले शिष्य शत्रू राचार्य ही कहलाते आये हैं । ये सब प्रायः अपने समय के अप्रतिम विद्वान् ही होते हैं । इनकी असंख्य रचनाएँ हैं, स्तोत्र हैं, जो सभी "श्रीमच्छङ्कराचार्यविरचितम्" कहे जाते हैं, किन्तु वे सभी आदि शङ्कर की कृतियाँ नहीं हो सकतीं । फिर भी सभी रचनाएँ स्मार्ती में आग आचार्य के नाम से प्रचलित हैं । शङ्कराचार्य जयन्ती — दक्षिण भारत में चैत्र शुक्ल पञ्चमाको किन्तु उत्तर भारत में वैशाख शुक्ल दशमी को शङ्कराचार्य की जयन्ती मनायी जाती है। इस तिथि को औपचारिक रूप से आचार्य शर के प्रति आदर और श्रद्धा अर्पित की जाती है। शङ्करानन्य उपनिषदों के मुख्य भाष्यकार ये प्रसिद्ध वेदान्ती स्वामी विद्यारण्य (माधवाचार्य) के गुरु थे । ये चौदहवीं शती के प्रथम अर्धाश में हुए थे। शङ्कुराकंवत रविवार वाली अष्टमी के दिन इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। सूर्य शंकर के दक्षिण नेत्र माने गये हैं, उनकी पूजा करनी चाहिए। केसर तथा रक्त चन्दन से अर्धचन्द्राकार आकृति बनाकर उसमें गोल वृत्त ७८ - Jain Education International ६१७ बनाना चाहिए। वृत्त में सुवर्णजटित माणिनय की स्थापना की जाय । यह शिवनेत्र (सूर्य) होगा । अर्क (सूर्य) शङ्कर के नेत्र हैं। वे ही इसके देवता हैं। (१) अथर्ववेद (४.१०.१) में शङ्ख कवच के रूप में व्यवहुत होने वाले पदार्थ का द्योतक है। परवर्ती साहित्य में यह फूंककर बजाया जानेवाला सागरोत्पन्न वाच है । ( २ ) शङ्ख एक स्मृतिकार धर्मशास्त्री भी हुए हैं । दे० 'स्मृति' । शठरिपु - दक्षिण भारत के आलवार सन्त अपनी प्रेमा भक्ति के लिए प्रसिद्ध हैं । इन्हीं में शठरिपु की गणना होती है । कलि के आरम्भ में पाण्ड्य देश की करुकापुरी में इनका जन्म हुआ, जिन्हें शठकोप भी कहते हैं । इनके शिष्य 'मधुर' कवि का जन्म शठरिपु के जन्मस्थान के पास ही हुआ था । विशिष्टाद्वैत सम्प्रदाय के आचार्यों को परम्परा में शठकोप स्वामी आदरपूर्वक गिने जाते हैं । शतदूषणी आचार्य वेंकटनाव या वेदान्तदेशिक कृत श्रीवैष्णव सम्प्रदाय का तर्कपूर्ण वेदान्त ग्रन्थ । रामानुजाचार्य ने भी इसके पूर्व शतदुषणी नामक ग्रन्थ की रचना की थी। इन ग्रन्थों में अद्वैतवाद की आलोचना की गयी है। शतपति — इन्द्र का एक विरुद, जिसका उल्लेख मैत्रायणी संहिता तथा तैत्ति० ब्रा० में हुआ है । इसका अर्थ है। 'मनुष्यों में एक सौ का राजा' तैत्तिरीय ब्राह्मण इसकी व्याख्या 'सौ देवों के राजा' के रूप में करता है । यह 'सौ गाँवों का राजा' अर्थ का भी द्योतक है, जिसका पता परवर्ती धर्मग्रन्थों से चलता है । यह ऐसे मानव कर्मचारी के अर्थ में प्रयुक्त है, जो राजा की ओर से न्यायाधिकारी या भूमिकरसंग्राहक के रूप में नियुक्त होता था शतपथ ब्राह्मण शुक्ल यजुर्वेद की माध्यन्दिनो तथा काण्व शाखाओं का ब्राह्मण शतपथ है। यह विस्तृत और सुग्यवस्थित ग्रन्थ है । शत ( एक सौ ) अध्याय होने के कारण इसका नाम शतपथ पड़ा। इसमें माध्यन्दिनी शाखा के चौदह काण्ड हैं तथा काण्व शाखा के सत्रह काण्ड हैं । प्रथम पाँच तथा अन्तिम काण्ड के रचयिता शांडिल्य ऋषि कहे जाते हैं। इसमें बारह सहस्र ऋचाएँ आठ सहस्र यजुष् तथा चार सहस्र साम प्रयुक्त हैं। इसके तीन प्रामाणिक भाष्य उपलब्ध हैं, जिनके रचयिताओं के नाम है हरि स्वामी, सायण और कवीन्द्र सरस्वती । शङ्कराचार्य ने जिस For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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